जुलाई 31, 2017

आईना

आइना  भला कब किसी को सच बता पाया है
जब भी देखा दायाँ अंग बाईं तरफ नज़र आया है
ऐसा नहीं  किधूप   जिंदगी में कभी आई ही नहीं
आके पलट गई, जो देखा  दुआओं का साया है
लाडले ने दुत्कारा,  फिर पिता ने अश्क पिए हैं
बहू ने आज फिर न दी रोटी  माँ ने ग़म खाया है
दिल उसका मजबूत पहलवान के शरीर से कम नहीं
जिस किसी ने जम कर दर्दो ग़म का मेवा खाया है
मौसम के लबों पर क्यों है आज भीगी ग़ज़ल आशा
क्या आज फिर तेरे सुर्ख लबों पर मेरा नाम आया है
आशा पाण्डेय ओझा "आशा
"http://www.youtube.com/watch?v=1pYEYSw9HBU

जुलाई 28, 2017

दोहा

अनुप्रास में दोहा

जल बिन जलचर जल गए, जल-जल निकसी जान।
मछली,मगर,मराल के,मीलों दिखे मसान।।
आशा पाण्डेय ओझा

जुलाई 27, 2017

राजस्थानी गीत

ऐक राजस्थानी गीत

थां बिन सूनां दिनड़ा म्हारा,
थां बिन सूनी रात जी।
आओ सायब चार दिवस थें,
सुण लो मन री बात जी।।

आखी आखी रात उडीके,
जीव उडीके,गात उडीके।
ओढ़ कसूम्बल रूप उडीके,
लावण आळी ,धूप उडीके।
तकतां तकतां मारग थांरो,
ढळगी अणगिण रात जी।

 चेत, जेठ, आसोज उडीके,
सावण भादौ रोज उडीके।
भीज्या-भीज्या खेत उडीके,
धोरां वाळी रेत उडीके।
गांव हुवे जद भेळो सारो,
चाले थांरी बात जी।

मेल माळिया कमठा माँगे,
रिपिया रोज साँवठा माँगे।
अगला महिना  पीतर जागे,
बाबोसा री बरसी आगे।
भेळा हुग्या दुनिया भर रा,
धोक,झडूला,जात जी।

दादीसा रो जी नीं सोरो,
नाम रटे हैं थांरो कोरो।
बाईसा रो करणो फेरो,
कारज सारा आय अन्वेरो।
आँगळियां दिन गिणता गिणता,
महिना हुग्या सात  जी।

आशा पाण्डेय ओझा

जुलाई 26, 2017

जीवन का उनवान है बेटी

जीवन का उनवान है बेटी।
मेरा  तो अभिमान है बेटी।

जब जब डूबे मन की नैया,
धीरज देता छोर है बेटी।
भरे उजाले दो -दो घर में,
तमस मिटाती भोर है बेटी।
दुःख को बाहर रोका करती,
ईश्वर का  वरदान है बेटी।

जीवन का उनवान है बेटी।
मेरा तो अभिमान है बेटी।।

 घर आले में दीप वो बाले,
लीपे चौक वो ,झटके जाले।
सींचे जल से नित वो तुलसी,
बानी से वो माँजे कलशी।
माँ के गुण हैं, रूप पिता का,
 मिश्रित सी पहचान है बेटी।

जीवन का उनवान  है बेटी।
मेरा तो अभिमान है बेटी।।

तीज, बैशाखी,वो राखी भी
वो गणगौर, छठी ,नोरातें
ब्याह ,बंदोलों की वो शोभा,
वो त्योंहारोँ की सौगातें।
मन तरू की टहनी पर बैठी,
कोयल का मधुगान है बेटी।

जीवन का उनवान है बेटी।
मेरा तो अभिमान है बेटी।।

आशा पाण्डेय ओझा

जुलाई 18, 2017

कौन

भटकी नाव सँभाले कौन।
जोखिम में जाँ डाले कौन।।

पूत विदेशों के बाशिंदे,
खोंलें घर के ताले कौन।

सबके अपने अपने ग़म हैं,
सुने हमारे नाले कौन।

उसके जलवे और अदाएं,
उसकी बातें टाले कौन।

बारूदों पर जब चलना हो,
पग के शूल निकाले कौन।

रुग्ण पड़ी माँ बच्चे छोटे
देगा इन्हें निवाले कौन।

हाय बुढ़ापा बैरी आया,
हमको रोटी डाले कौन।

उल्फ़त से तो दूरी अच्छी,
रोग भला ये पाले कौन।

सारा घर ही दफ़्तर जाता,
झटके घर के जाले कौन।

उलझे हम तुम मोबाइल में,
दीप साँझ का बाले कौन।

पाप वासना घट में बैठे,
इनका भूत निकाले कौन।

साहब, बाबू सबसे डरते,
फाइल कब अटकाले कौन।

जिस दिन हमने छोड़ी दुनिया,
शेर कहेगा आले कौन।

मेरे अंदर बैठा "आशा"
लिखता गीत निराले कौन।
आशा पाण्डेय ओझा

निश्चल छंद

निश्चल छंद

धीमे-धीमे साँझ ढली कुछ, इस विध आज।
नार नवेली सम थी उसके,मुख पे लाज।।
चुनरी नीली थी कहीं कहीं,पीले हाथ ।
पल-पल उसे निरखता सूरज,चलता साथ।।
आशा पाण्डेय ओझा

ग़ज़ल

याद की और ख़्वाब की बातें।
हर घड़ी बस ज़नाब की बातें।।

अब नये लोग सोच भी ताज़ा
 हैं पुरानी हिज़ाब की बातें

प्यार के दरमियाँ लगी होने
देखिये अब हिसाब की बातें।

गंध बारूद की उड़ी इतनी,
गुम हुई  हैं गुलाब की बातें।

पढ़ लिया भी करो कभी मन को,
सिर्फ़ पढ़ते क़िताब की बातें।

आज हँसलें चलो जरा मिलके
 फिर करेंगे अज़ाब की बातें।

सूख जाएंगे जब नदी,सागर ,
बस बचेंगी फिर आब की बातें

लोग सीधे सरल बड़े हम तो,
क्या पता बारयाब की बातें।

दर्द, बेचैनियां कहेँ किससे,
कहें किसें इज़्तिराब की बातें।

अब मुहब्बत है गुमशुदा "आशा"
हर तरफ़ है इताब की बातें।

आशा पाण्डेय ओझा

अगस्त 08, 2014

अपने मरने के बाद

किसी को
दान में दे जाना चाहती थी
मैं अपनी आँखें
ताकि मेरे मरने के बाद भी
देख सके
इस खूबसूरत जहान को
ये मेरी आँखे
पर अब नहीं देना चाहती
किसी को
किसी भी कीमत पर
मैं अपनी आँखें
यह बहता लहू
ये सुलगते मंजर
मेरे मरने के बाद भी
क्यों देखे 
बेचारी मेरी आँखें


आशा पाण्डेय ओझा

 दस साल पहले आई मेरी पुस्तक "दो बूँद समुद्र के नाम" से

मई 02, 2011

हम चाहते थे व्यवस्था बदले

हम चाहते थे व्यवस्था बदले 
क्योंकि व्यस्था जरा हो चली थी भ्रष्ट 
व्यवस्था बदली हो गई महा भ्रष्ट 
हमने फिर चाह व्यवस्था बदले 
व्यवस्था बदली हो गई महानतम भ्रष्ट 
हमने एक बार फिर चाह व्यवस्था बदले 
व्यवस्था फिर बदली ,हो गई महा महानतम भ्रष्ट 
अब हम में से कोई नहीं चाहता है की व्यवस्था बदले 
क्योंकि पूरा युग ही हो चला है व्यवस्था के समान्तर भ्रष्ट 
आशा