और नही पूज पाउंगी उन पथरों को
जिनके अस्तित्व की चाह ने किया हो
इंसानियत को लहू लुहान
जीवन श्मशान
मेले वीरान
इन्सान को इन्सान से अनजान
ज़र्रे ज़र्रे को परेशान
मेरी अटूट आस्था को हैरान !
मेरी पुस्तक "वक्त की शाख पे " से
लेखन आपके मन का खालीपन भरता है . मन को सुकूं मिलता है ,.मेरे भीतर जब कोई अभाव कसमसाता है तब शायद रचना जन्म लेती है, मुझे पता नहीं चलता आभाव क्या पर कोई रिक्तता होती है है कुछ उद्द्वेलित करता है इन भावों की आत्यंतिक उत्कटता और विचारों का सघन प्रवाह मेरे शब्दों को आगे बढ़ाता है मेरी कलम में उतर आता है . कभी शब्द मुझमे थिरकन पैदा कर देते हैं कभी जड़ बना देते हैं मुझे क्षण -क्षण सघनतर होते हुवे विचारों के बादलों को कोई बरसने से रोक नहीं पाती हूँ तो कलम उठानी ही पड़ती है .
जनवरी 27, 2010
मन के सम्बन्ध
बहुत रूखे सूखे हो गए मन के सम्बन्ध
आ हम तुम मिल के रो जाएँ
आँख किनारे बैठ करुना कि धोबिन
मन के मैले वस्त्र धो जाएँ
मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर"से
आ हम तुम मिल के रो जाएँ
आँख किनारे बैठ करुना कि धोबिन
मन के मैले वस्त्र धो जाएँ
मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर"से
अरी ओ दरिद्रता !
अरी ओ दरिद्रता !
काश !तुम होतीं
मेरे मन का एक निष्ठुर ख़याल
तो हर हाल में हंस कर तुम्हे टाल देती
बनाये रखने को संसार में
एक सरीखी सम्पन्नता
कभी ख़याल में भी
मै न लाती
तुम्हारा ख़याल !
मेरी पुस्तक "वक्त की शाख पे " से
काश !तुम होतीं
मेरे मन का एक निष्ठुर ख़याल
तो हर हाल में हंस कर तुम्हे टाल देती
बनाये रखने को संसार में
एक सरीखी सम्पन्नता
कभी ख़याल में भी
मै न लाती
तुम्हारा ख़याल !
मेरी पुस्तक "वक्त की शाख पे " से
जनवरी 26, 2010
धीमे धीमे जल
मत फ़ैल जंगल की धधकती आग की तरह
धीमे -धीमे जल मंदिर के चराग की तरह
ज़िन्दगी में कोई न कोई ख़ता जरूर हुई होगी
आज भी बाक़ी है चाँद के दामन पे दाग की तरह
मेरी पुस्तक "ज़र्रे ज़र्रे में वो है "से
धीमे -धीमे जल मंदिर के चराग की तरह
ज़िन्दगी में कोई न कोई ख़ता जरूर हुई होगी
आज भी बाक़ी है चाँद के दामन पे दाग की तरह
मेरी पुस्तक "ज़र्रे ज़र्रे में वो है "से
लड़की
न दुत्कारो! रात का अँधेरा कह कर मुझको
जन्मता मेरी ही कोख से तुम्हारे घर का उजाला
कड़वा समझ गिरा देते जिसे हाथ में लेने से पहले
जो तुमको लगता अमृत ,मुझी में पनपता वो प्याला
मेरी पुस्तक "दो बूँद समुद्र के नाम "से
जन्मता मेरी ही कोख से तुम्हारे घर का उजाला
कड़वा समझ गिरा देते जिसे हाथ में लेने से पहले
जो तुमको लगता अमृत ,मुझी में पनपता वो प्याला
मेरी पुस्तक "दो बूँद समुद्र के नाम "से
हथेली पर मेरी
हथेली पर मेरी शबनम रख गया जब से वो ग़रीब बच्चा अपनी आँखों का
सोचती हूँ काश!मैं सीप होती तो बना देती मोती वो अश्क उसकी आँखों का
मेरी पुस्तक "दो बूँद समुद्र के नाम "से
सोचती हूँ काश!मैं सीप होती तो बना देती मोती वो अश्क उसकी आँखों का
मेरी पुस्तक "दो बूँद समुद्र के नाम "से
दो बूँद समुद्र के नाम
अश्कों में बड़ी तहजीब है यह हर कहीं पर नही बहा करते ,
हँसी तो बड़ी ज़ाहिल है किसी की बेबसी पर भी आ जाये
मेरी पुस्तक "दो बूँद समुद्र के नाम" से
बेचारी मेरी आँखें
अपने मरने के बाद किसी को दान में दे जाना चाहती थी मैं अपनी आँखें
ताकि मेरे मरने के बाद भी देख सके इस ख़ूबसूरत जहान को ये मेरी आँखें
पर अब नही देना चाहती ,किसी को किसी भी कीमत पर मैं अपनी आँखें
ये बहता लहू ये सुलगते मंज़र मेरे मरने के बाद भी क्यों देखे बेचारी मेरी आँखें ?
मेरी पुस्तक "दो बूँद समुद्र के नाम "से
ताकि मेरे मरने के बाद भी देख सके इस ख़ूबसूरत जहान को ये मेरी आँखें
पर अब नही देना चाहती ,किसी को किसी भी कीमत पर मैं अपनी आँखें
ये बहता लहू ये सुलगते मंज़र मेरे मरने के बाद भी क्यों देखे बेचारी मेरी आँखें ?
मेरी पुस्तक "दो बूँद समुद्र के नाम "से
तारा टूटा
इक तारा टूटा विश मांगी
किसी ग़रीब ने अमीर होने की
नही समझ पाया , ग़रीब बेचारा
कि वो तारा अमीर होता तो
इस कदर टूटता ही क्यों ?
मेरी पुस्तक "वक्त की शाख पे "से
किसी ग़रीब ने अमीर होने की
नही समझ पाया , ग़रीब बेचारा
कि वो तारा अमीर होता तो
इस कदर टूटता ही क्यों ?
मेरी पुस्तक "वक्त की शाख पे "से
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