मार्च 21, 2010

ग़ज़ल हर एक लफ्ज़ में ग़म अपना ढाल लेते हैं
 हर इक वरक पर कलेजा निकाल लेते हैं
 हम जानते हैं ये पहलू भी दोनों तेरे ही हैं
 सुकून भर को ये सिक्का उछाल लेते हैं 
अजीब शोर है अहसास का मेरे दिल में
 गुब्बारे दिल से ये सागर निकाल लेते हैं
 ज़हर पियेगा भला कौन इन हवाओं का
 मिज़ाजे शिव की तरह खुद में ढाल लेते हैं
तेरी बेवफ़ाई पे यकीं करें तो मर ही जायें शायद 
यह ख़याल ही दिल से निकाल लेते हैं
 ये दर्दो -ग़म भी कहाँ ख़त्म होंगे आशा के
 ले ज़िन्दगी तुझे बस इक सवाल देते हैं 


मार्च 20, 2010

इक तेरे तसव्वुर ने महबूब यूं संवार दी ज़िन्दगी
कि तेरे बगैर भी हमने हँस कर गुजार दी ज़िन्दगी
राहें -मुहब्बत में दर्दो -ग़म देने वाले बेदाद सुन
तेरी इस सौगात के बदले हमने निसार दी ज़िन्दगी
तमाम उम्र यूं रखा हमने अपनी साँसों का हिसाब
जैसे किसी सरफ़िरे ने ब्याज़ पर उधार दी ज़िन्दगी
बात मुक़दर की जब आये शिकवा -गिला बेमानी है
जिसने तुझे गुल बनाया उसी ने मुझे ख़ार दी ज़िन्दगी
तूं ही बता ऐ ख़ुदा उसकी आतिश -अफ़सानी कैसे बुझे
चाह-ऐ-सुकूं में जिस शख्स को तूने अंगार दी ज़िन्दगी
हर इक ग़म को बड़े करीने से हँसी में छुपा लिया हमने
ऐ ख़ुदा तेरा शुक्रिया ,क्या खूब हमें फनकार दी ज़िन्दगी
किनारों की खफगियों से इस दर्ज़ा शिकस्त हुआ दिल
आख़िरकार "आशा " ने गिर्दाब में उतार ली ज़िन्दगी

तेरे बारे में बस इतनी खबर है
मेरे दिल में आज भी तेरा घर है
ताज दौलत से बनता, मुहब्बत से नहीं
प्यार ग़रीब का क्या कमतर है
आज महताब घर से निकला ही नहीं
या बैठा उनकी जुल्फों में छुपकर है
वादियाँ गुल से महकाने वालों की
सिसक रही ज़िंदगी काँटों पर है
ज़ख्म तो भर गए तेरी बेवफाई के
दर्द का अभी बाक़ी कुछ असर है

रिश्ते - नाते

न जाने ये कैसे रिश्ते नाते हैं
चाह कर भी जो तोड़े नहीं जाते हैं
रोम -रोम गाता जिनकी स्नेह गाथा
वो नफरतों का गम हमें दे जातें हैं
बेसबब रूठे रहते हैं अक्सर हमसे
लाख चाहें तो भी हम मना नहीं पाते हैं
फ़िर से जिनको चुनना आसां न हो
रिश्तों के मोती ऐसे क्यों बिखरातें हैं
हम हँसना चाहें साये में जिनके
ज़ार-ज़ार बार-बार वो हमें रुलाते हैं
मोह की नाव ले जाती हमें उनकी ओर
वो हैं कि कटुता के भंवर बिछाते हैं
इतना भी न गिराओ नज़रों से इनको
रिश्ते कच्चा काच हैं ,चटक जाते हैं
मेरी पुस्तक" एक कोशिश रोशनी की ओर "से

मार्च 19, 2010

दरो-दिवार सजाते हैं

हम शको-शूबह की आग बुझाते हैं
चल विश्वास के दरिया बहाते हैं
कर लेते हैं इंसानियत को बिछोना

प्यार मुहब्बत का तकिया लगाते हैं
चैनो - सुकूं की ओढ़ कर नर्म चादर
आँखों को ऊंचाई के ख़्वाब दिखातें हैं
चल सजाकर भाईचारे की थाली में
मिलकर मसर्रतों की मिठाई खातें हैं
दिखा अपने -अपने हुनर के तमाम रंग
अपने मुल्क के दरो-दीवार सजाते हें
मेरी पुस्तक "'इक कोशिश रोशनी की ओर "'से

मार्च 16, 2010

ये आंसू

ये आंसू फिर आज दीवाने हैं

फिर यादों में मीत पुराने हैं

जान चुके हम जिन को दिल से

क्यों रिश्ते वही अनजाने हैं

लाख छुपाऊँ जग से बातें

ढलकर अश्क कह जाने हैं

दर्द भरे इन रिश्तों के

आख़िरी हिचकी तक माने हैं

टूट गएँ हैं पर न बिखरेंगे

ज़ख्में जिगर तुझे दिखाने हैं

इन अश्कों को हम न पोंछेंगे

तेरे दिए जो नजराने हैं

आ जाओ तो जी भर रोलें

अश्कों के मोती तुम पे लुटाने हैं

खुद को तन्हा कैसे कह दें

साथ मेरे तेरे अफ़साने हैं

हर इक दोलत साए में है

जब तक तेरी याद के खजाने हैं

तुमको चाह कर कुछ ना चाहा

सरशारी मेरी रब भी जाने हैं

हैं कितने गहरे दिल के रिश्ते

ये अश्क उसी के पैमाने हैं

मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर'

संवेदनाओ के घने बादलों को

संवेदनाओं के घने बादलों को
नफरतों की हवा उड़ा ले गई
लहलहाती फ़सलें भाईचारे की
बाढ़ स्वार्थों की उन्हें बहा ले गई
बदरंग हो गई तस्वीर मेरे शहर की
धूप छल -कपट की रंग सभी उड़ा ले गई
जिस आग को मैं बुझाने चली थी
वही आग मुझको भी जला ले गई
रिश्तों में यूँ चले क़त्ल के सिलसिले
ये सदी जाने कहाँ शर्मो-हया ले गई
जाने कैसी डकैती पड़ी मेरे शहर में
हर शरीर से उसकी आत्मा चुरा ले गई
इंसाफ में उठती थी जो चंद आवाजें
कुछ मजबूरियां उन्हें भी दबा ले गई
मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से

मार्च 15, 2010

दर्द मेरे ज़हन का [कैद पंछी ]


मैं साथी था काभी इस उड़ते पवन का


आँखों में सपना था निस्सीम गगन का


जी भर जीता था जीवन हर एक क्षण का


अब तो दाना-पानी भी नहीं अपने मन का


क्या करूँ पिंजरे में ठहरे हुए इस जीवन का


मैं मालिक नहीं रहा जहाँ अपने ही फ़न का


कोई नहीं समझता यहाँ दर्द मेरे क्रन्दन का


वो तन्हा नीड रोता होगा मेरे घर-आँगन का


दिन के उजाले में भी अँधेरा अकेलेपन का


कभी सूरज था बांहों में,आज प्यासा किरण का


मेरी राह तकता होगा वो साथी मेरे बचपन का


जंजीरों में बंध गया,हर सपना मेरी पलकन का


आपनो का दर्द भी नहीं समझ पाता जो मानव


कैसे समझ पायेगा भला दर्द मेरे दिलो-जहन का



मेरी पुस्तक "दो बूँद समुद्र के नाम " से

मार्च 14, 2010

मैं चिड्कली [ बेटी ]


अनचाही तुम्हारे आँगन उतरती

मिल जाये तो स्नेह के नहीं तो

केवल संस्कारों के दाने चुनती

जरुरत भर उछलती

जरुरत भर मचलती

घर भर स्नेह पंखों की छाया करती

नित नव दायित्वों के पाठ समझती

जरुरत भर उड़ती

जरुरत भर फुदकती

दिखाओ तो देख लेती सूरज की किरणें

नहीं तो अंधेरों के ही साये में पलती

जरुरत भर आँख खोलती

जरुरत भर बोलती

जितने दिन रहने दो अपने आँगन

बैठी रहती,जिस दिन उड़ाओ

चुपचाप किसी अन्य आँगन जा ठहरती

अधिकारों को बिसराती

कर्तव्यों का पालन करती

मैं चिड्कली


मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर " से

अनुराग


हवा मिस- झुक -लुक -लुक -छुप

डार-डार से करे अंखियां चार

कस्तूरी हुई गुलाब की साँसें

केवड़ा,पलाश करे श्रृंगार

छूते ही गिर जाये पात लजीले

इठलाती-मदमाती सी बयार

सुन केकि-पिक की कुहूक-हूक

बौरे रसाल घिर आये कचनार

अम्बर पट से छाये पयोधर

सुमनों पर मधुकर गुंजार

कुंजर,कुरंग,मराल मस्ती में

मनोहर,मनभावन संसार

यमुना- तीरे माधव बंशी

फिर राधे-राधे करे पुकार

नख-शिख सज चली राधे-रमणी

भर मन-अनुराग अपरम्पार


मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से

ग़रीब का जीवन


'दर्द 'के समृद्ध महल हैं

'रंज़" की ऊँची दीवारें

'दुःख 'का रंग रोगन सजा

बंधी 'वेदनाओं ' की बन्दनवारें

'विपदाओं के बाग़ -बग़ीचे

'करुण'झूलों की कतारें

'आंसू 'के रिमझिम सावन

'कसक' की शीतल फुहारें

'चिंताओं 'के झाड़-फानूस से

'सजते' घर के गलियारे

'बेबसी के पलंग पर लेटी

दुल्हन'पीड़ा 'की चीत्कारें

'सूनेपन की साँझ में आता

दूल्हा'मजबूरी घर -द्वारे

दे 'अभावों ' की महंगी मिठाई

करते लाडलों की' मनुहारें '

पा 'दुत्कारों 'के खेल -खिलौने

खिलतीं बच्चों किलकारें

रोज़ सजाते आँगन देहरी

दीपक से 'आहों 'के अंगारे

'भूख 'परी सी छम -छम आती

टिम-टिम करते 'टीस' के तारे

जब' अरमानों का चूल्हा' जलता

मिल बैठ खाते ग़म सारे

'कंटक -प्रस्तर' के कोमल बिस्तर

बजती आल्हादित स्वपन झंकारें

'अँधेरे 'लिखते जिस की यश गाथा

यही है 'ग़रीब 'का जीवन प्यारे


मेरी पुस्तक '"एक कोशिश रोशनी की ओर'" से



मार्च 12, 2010

आ पहुंचा सृष्टि का काल


छुपे अंगारे दीपक लो में
लहुलुहान रंग -ओ -गुलाल है
संभल के उड़ना ओ रे पंछी
हर दिशा प्रलय का जाल है
विष का सागर नीलम आँखे
मुस्काने प्रवंचना की चाल है
राम सा आनन रावण मन
छल ने धरी मृग -छाल है
परख पहन रिश्तों के चोले
घात में बैठा विष व्याल है
मौत के घुंघरू छनक उठे
विध्वंस देता करताल है
घर -दरवाज़े थाप ठोकता
आ पहुंचा सृष्टि का काल है

मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर " से

सुनामी [२६दिस्म्बर २००४]

वो डूबती हुई ज़िंदगियाँ
वो उफनता हुआ समन्दर
वो सिसकती,तड़फती सांसे
वो काल का भयावह मंज़र

दर्द के दरिया में डूब गई
किश्तियाँ कितनी मसर्रतों की
ये कैसा तूफाँ आया जो बूझा गया
अनगिनत शमाएँ हसरतों की

हर नज़र ढूंढ रही अपनों के चेहरे
हर धड़कन को अपनों का इंतजार
जाने किधर बूँद -बूँद सी बिखर गई
इस समन्दर की बाँहों में जीवन धार

डूब गये थे कुछ ख़्वाब सुहाने
डूब गई थीं कुछ मधुर आशाएं
डूब गए थे खुशियों के अंजुमन
थीं हर सू बांह फैलाती निराशाएं

मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से

पदचिन्ह

इसलिय नहीं छोड़ रही हूं
अपने पदचिन्ह
कि शायद करे कोई मेरा अनुसरण
बल्कि इसलिए गहरे गड़ा रही हूं
ज़मीन में अपने पाँव
ताकि बता सकूँ दुनिया को
तमाम अवरोधों,विरोधों
आंधी ,तूफ़ानो के बावजूद
मन के पावों में उठती
दर्द भरी टीस के उपरान्त भी
रुकना मंजूर न था मुझको
मेरे पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से

मार्च 08, 2010

जय -जय भगवाधारी

सुख सुविधाएँ भोगे सम्पूर्ण
बहुतेरे साधू गृहस्थ ,संसारी
डोंगी,कपटी छलिया,छपटी
पाखंडी, मायावी,व्यभिचारी
रुद्राक्ष,तिलक भगवा,धारकर
फुसलाते जन-मन बारी-बारी
दो खोटे मनके चार मन्त्रों के बल पर
माने खुद को ज्ञान के अधिकारी
वेद, पुराण टिका, भाष्यों पर
तनिक न बुद्धि गईं विचारी
एसी घर कारें,व्यपार की कतारें
दौलोत ,सोहरत पे जाते बलिहारी
फिल्म,राजनीति ,कल्बऔर कैफे
सुस्वादिष्ट व्यंजन के चस्कारी
अफीम,दारु ,भंग -चरस-गांजा
करते सेवन पान,गुटखा,सुपारी
माँ,बहन,बेटी किसी को न छोड़े
रूप ,विषय ,वासना के पूजारी
हाथ कमंडल,माथे पे जटाजूट
ठग,दुष्टि ,धूर्त ,बड़े विषधारी
करतूतें,कारनामे रोज की खबरें
अक्सर घेरे रहते इनको डंडाधारी
फ़िर भी आसक्ति अंध है हमारी
यह कैसी फ़ैली धर्म की महामारी
हर तरफ जय-जय भगवाधारी

इस देश का संबल बनो

नव पीढी तुम इस देश का संबल बनो
माहौल कीचड़ है तो क्या तुम कमल बनो
जो जलना चाहता है उसके लिए अंगार बनो
चैन-सुकूं जो चाहे उसके लिए जलधार बनो
चंड-प्रचंड ज्वाला कहीं, कहीं गंगाजल बनो
नव पीढी तुम .......
माहौल कीचड़ ........
वतन की खुशहाली तेरी आँखों का सपन हो
दिल में हो वतन परस्ती,सर पर कफ़न हो
हर क़दम हो दृढ़ता भरा,कभी न विचल बनो
नव पीढी तुम ......
माहौल कीचड़ ........
तोड़ दो उन हाथों को जो छीनते ग़रीब का निवाला
वतन से जो करते ग़द्दारी, कर दो उनका मुंह काला
अमा की इस रात को परास्त कर, तुम चांदनी धवल बनो
नव पीढी तुम .........
माहौल कीचड़ .......
जाति-धर्म की मानसिकता से तुम्हे उबरना होगा
मन में सिर्फ़ एकता-अखंडता का भाव भरना होगा
आज़ादी के इस खेत में प्रेम भाईचारे की फसल बनो
नव पीढी तुम .......
माहौल कीचड़ .....
अधिकारों के मद में अपने कर्तव्यों को मत भूलो
उड़ान हौसलों की ऐसी हो कि हर बार गगन छूलो
सारी सृष्टि नत-मस्तक हो जाये,तुम इतने मुकम्मल बनो
नव पीढी तुम .....
माहौल कीचड़ है ........
मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से

मार्च 07, 2010

वह आदमी जीते जी मर गया
दहसत में जो घर छोड़ कर गया

ख़ूबसूरती की जो इक मिसाल था
वह आइना-ऐ -दिल से डर गया

यों बरसा ग़म का पगला बादल
सहरा-ऐ-दिल बन समंदर गया

वह आज़ाद परींदे सा आया
गया तो प्रीत सें बंध कर गया

अस्मत लुटा की खुदकशी जिसने
उसें देखने पूरा शहर गया

हाय !उसी शहर की अनदेखी से
एक परिवार भूख से मर गाया

आंतक का ये आवारा सांड
चैन-सुकून की फ़सलें चर गया


मुझको स्वीकार न था

जीवन क्षितिज पर बन जाऊं एक अनाम तारा
मेरे मन को ये आमंत्रण कभी स्वीकार न था
बूँद ही सही इक दिन चमकूंगी बन कर मोती
लहरों में गुम हो जाना मुझको स्वीकार न था

मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर " से

मार्च 06, 2010

ये दुनिया किसने बनाई ?


वो नंगे भूखे ज़िस्म,वो पथराई आँखें
पूछ रहे मुझ से ये दुनिया किसने बनाई॥?

क्यों रोशनी से भरा महल ये तेरा
क्यों मेरी झोंपड़ी में घनघोर अँधेरा
क्यों तेरी आँखें चाँद सी चमके
क्यों मेरी आँखों में है करुनाई
वो नंगे भूखे ................
पूछ रहे मुझसे ........

क्यों तुझको सुख सेज बिछाता
क्यों मुझको दुःख की शैया सुलाता
या नज़र में उसकी हम इंसान नहीं
या फ़िर एक नहीं है अपना रघुराई
वो नंगे भूखे ....
पूछ रहे मुझसे .......

क्यों हमीं पे गिरती बिजलियाँ मुफ़लिसी की
क्यों हमीं को डूबोते ये ग़म के धारे
क्यों थामे रहता दर्द दामन हमारा
क्यों टूटते हमारी ख्वाहिशों के तारे
वो नंगे भूखे ......
पूछ रहे मुझसे ....
मरी पुस्तक एक कोशिश रोशनी की ओर "से

चल साथी मेरे साथ चल


मैं तम से अकेले नहीं लड़ सकती
चल साथी मेरे साथ चल
चल आज किसी के दर्द-ग़म
खुद उनकी ज़बानी सुनते हैं
बहुत सुन चुके दर्द के गीत गज़ल

किसी आहत को कुछ तो राहत देंगे
तेरे अंतर की करुना,मेरा नयन जल
ये जीवन पहेली मुस्किल जिनको
आ हम-तुम ढूंढें उनकी ख़ातिर कोई हल

जो हैं अंधेरों में उनकी ख़ातिर चाँद मनायें
जो तपिश में, खींच लायें उनके लिए बादल
आ हम-तुम,तुम-हम करके सब मिल जाएं
फ़िर न होगी कभी अपनी राहें मुश्किल

मैं तम से अकेले नहीं लड़ सकती
चल साथी मेरे साथ चल
मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से

ऐसा क्या लिख दूं

ऐसा क्या लिख दूं कि लिखने का आगाज़ हो जाये
मेरे मरने के बाद वो लफ्ज़ मेरी आवाज़ हो जाये
मेरी पुस्तक एक कोशिश रोशनी की ओर "से

आख़िर कब तक

चाह में अपने अस्तित्व की
सीता से लेकर
तसलीमा नसरीन तक
होना पड़ा भूमिगत
आख़िर क्यों ...?
आख़िर कब तक ॥?

मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर" से

रक्त कण

ममता,माधुर्य
दया- करुना
लज्जा-समर्पण
श्रधा -विश्वास
शांति -संवेदना
तप -त्याग
स्नेह -सहृदय
क्षमा -सहानुभूति
धैर्य -संतोष
नहीं करवा रही हूँ
आपका परिचय
किसी शब्द कोष से
ये वो "रक्त कण "है -
जो बहतें हैं -
हर औरत की रगों में

मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से

कैसे किसी सें प्यार करें

कैसे किसी से व्यवहार करें




मंज़र-मंज़र बिखरा धोखा

कैसे किसी पे ऐतबार करें




बोझिल-बोझिल रिश्ते सारे

किस सें मन की बात करें




ज़हरीले से मन के मौसम

जीवन कैसे रसधार करें




दिन -ओ -रातें सब ही रोते

किस -किस को पुचकार करें




पग -पग जीवन पीछे जाये

कैसे ऊंचाई पे अधिकार करें




हर पत्थर पूजन की चाह में

किस-किस को रब स्वीकार करें




जीवन अर्थ बनादे जो सार्थक

किन शब्दों पर विचार करें




रात बसी है आँख में अब तक

कैसे सुबह का इंतज़ार करें


मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से

आंसू लाचारी के

क़त्ल कन्याओं का यूं छुप-छुप न कीजिये
जाने- अनजाने खुद को ही सज़ा न दीजिये
सृष्टि हो जायेगी मानव विहीन बिन नारी के
फ़िर रोओगे बैठकर आंसू अपनी ही लाचारी के

मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से

भावों का पानी

रीत गए हैं प्रीत भरे पतीले
उलट गई है संस्कारों की थाली
मन-मटके में नहीं भावों का पानी
आदर्शों का डिब्बा खाली-खाली
बासी हुई सुगंध सम्बन्धों की
रिश्ते हुए हैं ज़हर की प्याली
पावन नही रही अग्नि चूल्हे की
कुंठा के धुएं से घर-दीवारें काली
आँखें मुस्काती कुटिल मुस्काने
मुख का अभिवादन बन गाया गली
बिखरी आदर -सत्कारों की रंगोली
टूट गई मान मनुहारों की डाली
पेड़ों पर लोभ लालच की अमराई
उगी फ़सलो पर ग़द्दारी की बाली
विकसी दूषित विचारों की फुलवारी
फ़ैली पाप अधम की हरियाली
दया करुना के पक्षी न आ पते अन्दर
छल -कपट बन गया मन का माली
वासनाओं से भरा भौंरों का गुंजन
तितलियों मुख नहीं लाज़ की लाली
कच्चे पड़ गये प्रण के पत्थर
ढह गई इमारतें मिसालों वाली

मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से

मार्च 05, 2010

लड़की

न दुत्कारो रात का अँधेरा -
कहकर मुझको ,
ज़न्मता मेरी ही कोख से
तुम्हारे घर का उजाला
कड़वा समझ गिरा देते जिसे-
हाथ में लेने से पहले ,
जो तुमको लगता अमृत -
मुझी में पनपता वो प्याला
मेरी
पुस्तक "दो बूँद समुद्र के नाम "से

ज़िन्दगी मुस्कराती रहे


भोर की सुहानी किरणें
दुलरा कर उठाती रहे
चढ़ते सूरज की रोशनी
क़िस्मत आपकी चमकाती रहे

शाम की सुर्ख लालिमा
जीवन में नये रंग लाती रहे
दिल से यही दुआ है हरदम
आपकी ज़िन्दगी मुस्कराती रहे

हवाओं की रुन-झुन भरे-
जीवन में मधुर संगीत
चन्द्र की चांदनी हुलस-हुलस-
लिखे आपके लिए सुख के गीत
मंजिलें खुद बढ़ के चूमे क़दम आपके
राहें पग-पग पर फूल बिछाती रहे
दिल से यही दुआ है हरदम
आपकी ज़िन्दगी मुस्कराती रहे
मन कोयल कुहुक-कुहुक गाये
खुशियाँ पल-पल साए में आये
यश का फ़लक हो बाजू में
समृधियाँ शीश झुकाती रहे
दिल से यही दुआ है हरदम
आपकी ज़िन्दगी मुस्कराती रहे


मेरी पुस्तक "दो बूँद समुद्र के नाम "से

माफ़ करना पड़ा

जब से बहुत रोने लगी

मेरी आँखे उस बेवफ़ा की याद में

दिल को न चाहते हुए भी

उसका हर गुनाह माफ़ करना पड़ा

दो बूँद समुद्र के नाम से

चेहरा तो उसी का होता है

कुछ भी देखूं ज़हन के आईने में

चेहरा तो उसी का होता है

जब भी या खुदा बोलती हूँ लब से

दिल में नाम उसी का होता है

में कहां करती हूँ कुछ अपने मन से

जो वो चाहे वही होता है

रोती भी हूँ तो सिर्फ़ अश्क मेरे बहते हैं

दिल में दर्द तो उसी का होता है

मेरी पुस्तक "दो बूँद समुद्र के नाम "से

मंजिलें मकसद को पा लेना इतना आसान न था
चंद क़दम भी साथ देता ऐसा इक भी इंसान न था

रोशनी के लिए दिल भी अपना जलाया कई-कई बार
ज़िन्दगी में फ़िर भी उजालों का नामो निशान न था

तमाम उम्र जिसको पूजा था,पूजा की हर इक विधि से
वक्ते -रुखसत पता चला कि वो मेरा भगवान न था

दिल का दरवाज़ा खटखटाता रहा जो दिल के जगने तक
दरवाज़ा खोला तो पाया वो इस दिल का मेहमान न था

मौत से पहले मुश्किल था यारों खुद को दफ़न कर देना
वरन ज़िन्दगी भर तो हम पे किसी का कोई अहसान न था

मेरी पुस्तक "दो बूँद समुद्र के नाम "से

उठ रहा था

आज जब वो मेरी महफ़िल से उठ रहा था

सूरते दीद सा कुछ मेरे दिल से उठ रहा था

शायद बुझ रही थी उम्मीदों की शमाएँ मेरी

या कि ख्वाहिशों का ज़नाज़ा उठ रहा था

मेरी पुस्तक "दो बूँद समुद्र के नाम "से

पृष्ठ अतीत के

नयन शलिल का बह-बह आना
नयनांजन का धुल- धुल जाना
नयन पथ पर बिखराते है यादें
अतीत पृष्ठों का खुल -खुल जाना
मेरी पुस्तक 'दो बूँद समुद्र के नाम "

मत खेलो

शस्त्र और बारूदों के ढेर से मत खेलो ,

बड़ी सुन्दर ज़िन्दगी है ये इसें नरक में मत धकेलो

धरा को इश्वर का सुन्दर वरदान हो तुम

पल-पल याद रखो ,जानवर नहीं इंसान हो तुम

"दो बूँद समुद्र के नाम "से

कहीं धूप में

कहीं धूप में जले लोग
कहीं बर्फ में गले लोग

दर्दो-ग़म की बस्ती में
तन्हाई के काफ़िले लोग

बारूदों की तल्ख़ धूप में
खूं-पसीने से गिले लोग

बिन जुर्म जो काटे सज़ा
वो सलीब की कीलें लोग

कुछ पड़े हैं लाशों जैसे
कुछ हैं गिद्द-चीलें लोग

सागर थे जो सूख गए
बचे रेत के टीले लोग

खूं भी नहीं खौलता अब
नहीं होते लाल-पीले लोग

पाप अधम के बाजों पर
नाच रहे रंगीले लोग

दुनिया की फुलवारी पे
उग आये कंटीले लोग

बिन पैंदे के लोटे सब
नहीं रहे हठीले लोग

कंचन वर्ण सी काया में
कलुष भरे पतीले लोग

नफस नफ़स ज़हर भरा
दिखते नही नीले लोग
मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से

माँ तुम

माँ तुम ममता का मूर्त रूप
तुम सतरंगी स्नेह -आँचल
तुम मंदिर प्रांगन सी पवित्र
तुम पावन -पुनीत गंगाजल
टेढ़ा -मेढ़ा विकट जीवन जगत
तुम सीधी-सादी सरल प्रांजल
छल ,छदम ,कपट चारों तरफ़
माँ तेरी गोदी निर्मल ,निश्छल
पावक ,अनल सामान जीवन
तुम चन्दन की छाया शीतल
तेरे आशीषों की ज्योत्सना से
पथ मेरा नित -नित उज्जवल
पाने तेरा वात्सल्य सोम -सुधा
ज़न्म-ज़न्म पी लूँ जीवन गरल
तेरी कोख पाने की अभिलाषा में
स्वयं -भू भी है आतुर प्रतिपल
मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से

मार्च 04, 2010

खुद ही से दर जायेगा आदमी

सरपट भागती हुई ज़िंदगी में

कंही ठहर जायेगा आदमी

कसैला-विषैला मन का वातावरण

जीते जी मर जाएगा आदमी

ख्वाहिशों के ताने -बाने में

खुद बिखर जायेगा आदमी

दौड़ता हुआ सभ्यता की अंधी दौड़

संस्कृति बिसर जायेगा आदमी

मशीनों के बीच बन गया है मशीन

जाने किधर जायेगा आदमी

देख लिया जो शीशा इक दिन अनजाने में

खुद ही से डर जायेगा आदमी

मेरी पुस्तक "एक कोशिश रौशनी की ओर " से

कैसे सुनूं बसंत की चाप

ऐ मन बता कैसे सुनूँ बसंत की चाप

नज़र ओ मन पे हावी आंतक की छाप

चंग, मृदंग पे गोले -बारूद की थाप

वक्त को लगा जाने ये किसका श्राप

सुलग रही हवाएं,रोशनी रही कांप

मन हुआ कातर विनाश सृष्टि का भांप

मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से

वक्त नई कहानी का है

मैं परेशान हूँ क्योंकि वक्त परेशानी का है
मेरा नहीं मसला वतन की जिंदगानी का है

ये सुलगते मंज़र,ये संवेदनाओं की ख़ामोशी
वाकई मैं हैरान हूँ क्योंकि वक्त हैरानी का है

बैठे रहेंगे कब तक यूं मूँद कर अपनी आँखें
जगो!वक्त अब हर ज़र्रे पर निगरानी का है

ये ख़ामोशी,ये अनजानापन आखिर कब तक
हटा दो मुंह से हाथ ये वक्त मुखर वाणी का है

धुंधले हुए इतिहास के पृष्ठों पर रचे हुए हरूफ़
वक्त को इंतज़ार अब इक नई कहानी का है

मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से

ढूंढ लेता है

आंधियां लाख तोड़े चाहे नीड़

पांखी फिर भी बसेरा ढूंढ लेता है

कितनी ही लम्बी क्यों न हो रात

सूरज फ़िर भी सवेरा ढूंढ लेता है

मेरी पुस्तक" एक कोशिश रोशनी की ओर "से

अर्थ भर

ना ही बहुत लम्बी उम्र

न ही युग-युगांतर

मैं जीवन जीना चाहती हूँ

छोटा किन्तु अर्थ भर

मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से

अनाथ

उसके कांधों पर नहीं रहा अब भारी बस्ते का बोझ
क्योंकि उसके कांधे ढो रहें हैं अब ज़िन्दगी का बोझ

बन खगोल शास्त्री ढूँढना चाहता था जो नए नक्षत्र
आज मात्र दो वक्त की रोटी रह गई है उसकी खोज

अब नहीं खिंचती उसको चाँद-तारों की झिलमिलाहट
पग-पग पर जल रही है उसकी ज़िन्दगी बन कर सोज़

निश्चयही मेरा वतन आज विश्व में सबसे अग्रणी होता
गर मजबूरी ने न तोड़े होते इक 'कलाम'के सपने रोज़

मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से
सचमुच ये सब देख के मन बहुत रोता है...!!!

ऐसा काम करतें हैं

अपनी ज़िंदगी को यहीं तमाम करतें हैं
चल इसें किसी और के नाम करतें हैं

बहुत दूर तक बहे बदी की इस नदी में
अब नेकी तट पर थोडा विश्राम करते हैं

रग-रग में ईर्ष्या-द्वेष के बेलों की हुंकारें
संयम साधना से उनपे लगाम करतें हैं

हावी है युगों से इस आनन् कई दसानन
इन्हें मिटाने को,खुद ही को राम करतें हैं

मृत्यु-शैया सन्मुख जीवन उत्सव हो जाये
आ पर हित में ऐसा कोई काम करतें हैं

मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर से 

इक ऐसा स्वर्णिम सवेरा होगा

इक ऐसा स्वर्णिम सवेरा होगा
फ़िर न कहीं कोई अँधेरा होगा

सूरज उगेगा ऐश्वर्य वैभव का
समृद्धि का घर-घर फेरा होगा

आनंद-उत्सव की होंगी बस्तियां
चमकता हुआ हर चेहरा होगा

विषाद-वेदना जहाँ वर्जित होंगे
प्रहरी सुख प्रमोद का घेरा होगा

गूंजेगी "जय हो" की अनुगूंज
भाल पे कीर्ति का सेहरा होगा

उन्नति-प्रगति की होगी हरियाली
ऐसा सुन्दर भारत -वर्ष मेरा होगा

फिर चहकेगी सोने की चिड़िया
उस दिन धन्य जीवन मेरा होगा

मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से
हर इक ज़िंदगी जैसे मौत का घर है
हर साँस खौफ़जदा,हर दिल में डर है
कौन करे किसी की मौत का मातम
यहाँ रूह भी ज़िस्म से बेखबर है
हर तरफ़ है बेइंसाफ़ी की हवाएं
हर तरफ़ दरिया ऐ जोरोज़बर है
खुद का बोझ खुदी को ढोना होगा
रिश्तों की भीड़ में तनहा बसर है
मौत ओ ज़िंदगी में फ़र्क इतना ही
इक कड़वा घूँट ,इक मीठा ज़हर है

मंजिल की तरफ़

मंजिल की तरफ़ हौसला ले जाता है
ज़िक्र हर जगह क़दमो का आता है
इक मोड़ पर आंसू भी छूट जाते हैं
दर्द उम्र भर को तनहा रह जाता है

मार्च 03, 2010

हाथ गुलचीं के खाली रहे चमन फूलों से भर गया

वो भूख से नहीं मरा,वो अपने उसूलों से मर गाया

वस्ल की आरज़ू हिज्र की शब हुई
कम नसीबों की चाह पूरी कब हुई

शबे -सियाह से मुहब्बत कर बैठे
रोशनी हमसे बेवफ़ा जब हुई

अश्कों ने कह दिया हम उफ़ताद हैं
वरन अपनी ज़बां से उफ़ कब हुई

ख़ुदा-परस्ती से जिनके माने थे
वो ही पाकीज़ा मुहब्बतें रब हुई

सावन के अश्क भी थम से गए
मेरी निगाहों से बारिश जब हुई


पलट गई रोशनी मेरे दर तक आते हुए
जो देखा तुम्हे हम से रूठ कर जाते हुए

फ़ज़ा आज इतनी नम-नम सी क्यों है
कोई रोया होगा किसी को भूलाते हुए

बदमाज़ज़ हवा ने जाने क्या कह दिया
लौट गए बादल जलती धरा पे छाते हुए

छटपटा रही है तेरे दीद की ये आरजू
और कितनी देर लगेगी तुझे आते हुए

कैसे जाना कि हम हिन्दू ,मस्लिम या सिख हैं
कुछ तो न लिखा था हम पे ज़हां में आते हुए

उसकी बेवफ़ाई से भी न टूटी थी जितना
उतनी बिखर रही हूँ उसके ख़त लौटाते हुए




हर शै ज़ुल्मतों से घिर गई
निज़ामे -कुदरत किधर गई
रोशनी अमीरों को लुटाकर
बर्क मुफलिसों पर गिर गई
महलों की ठुकराई धूप
किसी चाली पर बिफर गई
गमख्वार बन आई जो सबा
मिरे वीराने से सिहर गई
पत्थर हो चुकी वो हसरतें
आज फ़िर से क्यों बिखर गई

जो तू चल के

जो तू चल के इक बार आ जाये

अज़ल गिरफ़्त को करार आ जाये

अज़ब कशमकश में है मौत मेरी

कहीं फिर न तुझ पे प्यार आ जाये

मेरी पुस्तक "ज़र्रे-ज़र्रे में वो है "से

याद के कोयले

दिल की सिगड़ी में अब तक धधक रहें हैं
तेरी याद के कोयले
चारों और फैलती हुई उसकी तपिश
जलाने लगी है मेरे आस-पास को
अब तो में भी चाहती हूँ कि _
ये जल्द ही तब्दील हो जाये राख में
मुझे मालूम है कि बाद उसके
मैं भी मिल जाउंगी ख़ाक में

मेरी पुस्तक "वक्त की शाख पे " से

मार्च 02, 2010

तलबगार रहे

जब तलक जीये तेरी दीद के तलबगार रहे
बस यही वज़ह थी कि हम उम्र भर बीमार रहे

जिसने लगाये गुलसन गुल ओ बू की ख़ातिर
उस गुलची के हिस्से में पतझड़ और ख़ार रहे

ख़ता बस ये हुई कि दिल का कहना मान लिया
उसी बिनाय पर हम भी मुजरिमों में शुमार रहे
मेरी पुस्तक "ज़र्रे -ज़र्रे में वो है "के अंश ..

आँखों में

बता ये कौनसा गम इज़्तराब है तेरी आँखों में
ज़रूर कोई अधूरा ख्वाब है तेरी आँखों में

क्यों कतरा-ऐ शबनम छलकाती रहती हैं हर वक्त
हो न हो कोई चेहरा गुलाब है तेरी आँखों में

जाने क्यों चाँद को भी नहीं देखा करते हो आजकल
यकीनन कोई दूजा महताब है तेरी आँखों में

लाख तैरना आये चाहे किसीको वो डूब जाएगा
दर्दो -गम का इक ऐसा गिर्दाब है तेरी आँखों में

नहीं पूछेंगे कैसे काटी तुमने इंतज़ार में उम्र
हर इक लम्हे का ज़वाब है तेरी आँखों में

मेरी पुस्तक "ज़र्रे -ज़र्रे में वो है "से


किसी की याद में

किसी याद में रोती चली गई
खिज़ां भी बहार होती चली गई

उम्र के संग सयानी हुई पीड़
खुद चारागार होती चली गई

फूल की उम्र ज्यों आई करीब
कलियाँ करार खोती चली गयी

इन अंधेरों को पनाह दे कर
रात बदनाम होती चली गई

बोझ ग़रीब के मूलो-सूद का
कई पीढियां ढोती चली गई

क़ाबे-काशी को शक्ल देने में
इंसानियत खोती चली गई

दिल में बेदार हुई जब उम्मीद
नाउम्मीदी सोती चली गई

टीस की सूई दे गया कोई
आँखें लड़ियाँ पिरोती चली गई

पहाड़ों के पीहर से बिछड़ नदी
पिया समंदर की होती चली गई

मेरी पुस्तक ज़र्रे -ज़र्रे में वो है "से

ज़िन्दगी का अलाव

बुझने चला है अब मेरी ज़िन्दगी का अलाव
साँसे भी गीली लकड़ियों सी दुन्धाने लगी है
हो सके तो आ के बुझा दे इस इंतज़ार को
मेरी मौत की आँखें भी डब-डबाने लगी है
मेरी पुस्तक ज़र्रे -ज़र्रे मै वो है "से

सहरा बनाने की जिद पाले हुए है

ये अश्क उन लोगों की ख़ातिर जाया न करो
जो तुम्हे सहरा बनाने की ज़िद पाले हुए हैं
देखना एक दिन वो ही तेरे हाथ कटवा देंगे
जिनकी लगी बुझाते हुए इनमे छाले हुए हैं
मेरी पुस्तक "ज़र्रे -ज़र्रे में वो है "से

फ़रवरी 28, 2010

राह तकते आँखों में छाले हुए

राह तकते आँखों में छाले हुए

मिट रहे हसरते दीद पाले हुए

जाने कहाँ ठहर गया वो मुसाफ़िर

जिसकी खातिर हम मौत टाले हुए

मेरी पुस्तक "ज़र्रे-ज़र्रे में वो है "से

रंगे -खूं उतरा है

ये किसने रख दिए तबाही के ख़ार मेरे शहर की थाली में
हम तो गुल परोसने वाले लोग थे ज़िन्दगी की प्याली में
रंगे -दर्द समझ के तड़फ उठे हम देख कर जिन निगाहों को
हमे क्या खबर थी रंगे -खूं उतरा है उन निगाहों की लाली में
मेरी पुस्तक ज़र्रे -ज़र्रे में वो है "से
रखने को दुनिया साफ़-स्फ्फ़ा अब कबाड़ी की ज़िन्दगी जी जाये
नफ़रतों की रद्दी के बदले मुहब्बत की कीमत अदा की जाये
मेरी पुस्तक "ज़र्रे -ज़र्रे में वो है "से

फ़रवरी 11, 2010

काश !

काश !ये दिल दिल्ली की कुर्सी होता ,
फिर ये कभी न टूटता न तनहा होता
इस को पा लेने की कईयों में होड़ होती,
संभालने में मेहनत क़मर तोड़ होती
ये भी कईयों को आजमाता,मौका देता,
सज़ा उसको देता जो इसको धोका देता
जो इसको लगता वफ़ादार,इसमें वापस आता ,
इसके साथ दग़ा करने पर बुरा हाल होता ,
वो पांच साल या इससे पहले ही रोता
इसके साथ खेलना इतना आसन न होता,
जो करता ऐसी नादानी पश्चाताप में रोता
वफ़ादारों को परखने को समय की परिधी होती,
बेवफ़ाओं को हटाने के लिए कोई विधि होती
हर किसी के सपनों का ये सरताज़ होता,
काश !ये दिल दिल्ली की कुर्सी होता
मेरी पुस्तक "दो बूँद समुद्र के नाम "से

तलाश है मुझको

इन तमाम घुप्प अंधेरों को पराभूत कर सके जो,
ऐसी ही एक किरण की तलाश है मुझको
आहिंसा का चाँद जला सके जो हर दिन हर रात,
ऐसे ही एक गगन की तलाश है मुझको
पानी की बूंदों की बजाय बरसा सके प्रेम- शांती
ऐसे ही एक सावन की तलाश है मुझको
जिसमे ईर्ष्या,द्वेष,कटुता,नफ़रत न हो लेश मात्र ,
ऐसे ही एक मन की तलाश है मुझको
असंख्य,अगनित गोडसों की क़तारों के बीच छुपे,
गांधी से एक जीवन की तलाश है मुझको
मेरी पुस्तक दो बूँद समुद्र के नाम "से

दुःख है मुझे

एक कार खाई में गिरी ,
चार लोग मर गए
उन्हें न बचा पाने पर-
कितने रोये तुम
तुम्हें कितना अफ़सोस हुआ
चलो तुम तो सवेंदनशील हो
इस बात की बड़ी खुशी है मुझे
पर करोड़ों इन्सान जाँत-पाँत की-
इन गहरी खाइयों में गिर गए,
अगिनत,असंख्य मर गए
इन्हें न बचा पाने पर
एक भी आंसू न गिराया तुमने
जरा भी अफ़सोस न हुआ तुम्हें
तुम भी कितने संवेदनहीन हो
इस बात का बहुत दुःख है मुझे !
मेरी पुस्तक "दो बूँद समुद्र के नाम "से

कहाँ से आ गई ?

मै तो मखमली धोरों की उपज हूँ
ज़िन्दगी पथरीले पहाड़ों से कैसे टकरा गई ?
शुष्क वसुधा है ज़न्म्स्थली मेरी
फिर नैनों में इतनी नदियाँ कहाँ से आ गई ?
मेरी पुस्तक "दो बूँद समुद्र के नाम "से
लाख बदली हो चाहे सदी आज तक
दबाती है नेकी को बदी आज तक
हुई दिल के सामने बेबस इस क़दर
समंदर को जाती है नदी आज तक
एक दरिया बन गया होता अब तलक
गर जोड़ते आँखों की नमी आज तक
हर साँस पे लाख़ों मर्तबा हम मरे
बस धड़कने हमारी न थमी आज तक
मिली मुझको ज़माने भर की दौलतें
कुछ हसरतें दिल में दबी आज तक
प्यार करने वाले हज़ारों हर शहर
क्यों है फ़िर भी आप की कमी आज तक
कई पतझड़ आये,हिलाकर चल दिए
शाख मन की सपनो से लदी आज तक
रास्तों ने भले कम कर दिए हों फ़ासले
पर दूर आदमी से आदमी आज तक
कहते हो कि हमसे मानते तुम नही
क्या दिल से मनाया है कभी आज तक
धो-धो कर ज़िस्म को संगेमरमर किया
परतें मैल की मन पर जमी आज तक
क्यों उड़ी हवा कि ज़मीं-आसमां मिल रहे
आसमां को छू भी न सकी ज़मीं आज तक
मेरी पुस्तक "ज़र्रे-ज़र्रे में वो है "से

ग़ज़ल

ग़ज़ल
हर क़दम एक डर सा लगता है 
आदमी क्यूं शरर सा लगता है 
डर अंधेरों से क्यूं रहे मुझको 
उसका चेहरा सहर सा लगता है 
इसलिए रखते हैं ख़बर उसकी 
वो हमें बेख़बर सा लगता है 
उनको साया नसीब हो मौला 
जिनको पल दोपहर सा लगता है 
दोस्तों का वो इक हसीं साया 
एक घनेरा सजर सा लगता है 
दिल मुअत्तर है कितना आशा का 
खुश्बूओं के नगर सा लगता है

ऐ खुदा

ऐ खुदा इतना भी कमाल न कर
ज़िंदगी में मौत सा हाल न कर
काँटों को इतनी तरज़ीह देकर
यूं फूलों का जीना मुहाल न कर
ये दुनिया इक मुसाफ़िर ख़ाना
इसमें बसने का ख़याल न कर
ग़मे दहर का झगड़ा लेकर
तूं अपने घर में बवाल न कर
दर्द का दरमाँ तड़फ ही है
करके मुहब्बत मलाल न कर
आग बहुत दुनिया में,पानी कम
ये आंसू बेवज़ह पैमाल न कर
याद कर वो माज़ी के मंज़र
तूं अपना बरबादे-हाल न कर
चांदनी की चाह में यूं न पगला
इन अंधेरों से विसाल न कर

फ़रवरी 10, 2010

उपयुक्त शब्द

अनुपयुक्त जगह
प्रयुक्त हुए
उपयुक्त शब्द
अन्दर ही अन्दर
छटपटाते हैं
तिलमिलाते हैं
आँसु बहाते हैं
जैसे किसी कुलीन वंश की बेटी
ब्याह दी गई हो
किसी निकृष्ट परिवार में

बाक़ी न बचा

दर्दो-ग़म कोई भी बाक़ी न बचा मेरी ज़िन्दगी में आना
गोया ये मेरी ज़िन्दगी नही,हो दर्दो-ग़म का यतीम-ख़ाना
मेरी पुस्तक "दो बूँद समुद्र के नाम "से

क्या नाम दें ?

इस काल खंड को क्या नाम दें
जो जिया हमने !
कि जिया है हमने -
युद्ध /आंतक/विध्वंश
हिंसा /अराजकता
भय /शोक /संताप
प्रवंचना /आडम्बर
विद्वेष /पर्तिशोध
विषाद/वेदना
नग्नता /कामुकता
अवसरवादिता /भ्रष्टाचार
गलाजत /असंतोष
निरानंद /निरंकुशता
हत्या /बलात
कहाँ जिए हमने वे क्षण
जिस पर उठा कर सर
क्षण दो क्षण कर सकें अभिमान
आश्वस्त हो सके प्राण
हाय जीवन !
तुम्ही में जीया है हमने
हर क्षण
मृत्यु का महाकाल
जो नाचा हर मन में
दे नौ -नौ ताल
मेरी पुस्तक "वक्त की शाख पे "से

मज़बूर कर देंगे

अंधेरों तुम्हे रास्ता छोड़ने को मज़बूर कर देंगे
मेरे मंदीरे-वतन में फ़िर से वो चरागाँ जल उठे हैं
गफ़लत में जो घड़ियों तलक सुस्ताते रहे बेखबर
वो लम्हे फ़िर से बेदार होने के लिए मचल उठे हैं
मेरी पुस्तक "ज़र्रे -ज़र्रे में वो है "से

ज़ज्बा कितना सच्चा रहा होगा !

इस खुले आँगन से तो वो कुंजे -कारागार अच्छा रहा होगा
जंगे-आज़ादी में सरीक जहाँ वतन का हर बच्चा रहा होगा
उन लम्हों की तफसीरें पढ़ के बहरा आँखे नम हो जाती हैं
वतन पर मिटने वालों का ज़ज्बा कितना सच्चा रहा होगा
मेरी पुस्तक "ज़र्रे -ज़र्रे में वो है "से
सुकूं का एक कलाम लिख
सबको दुआ सलाम लिख
नज़र मुहब्बत की करले
जुबां प्रीत का पयाम लिख
इक ख़त तहरीरे -अमन का
इस ज़माने के नाम लिख
संग अँधेरा न लाये
ऐसी कोई शाम लिख
मुश्किलातों भरे दौर का
वक्त अब यहीं तमाम लिख
या मुकर अपने वजूद से
या शऊर से निजाम लिख
मेरी पुस्तक "ज़र्रेज़र्रे में वो है "से

फ़रवरी 09, 2010

बिखरते टूटते रहे

सहरा में आब-ऐ नक्श ढूंढते रहे

दीवारो-दर तेरे ही अक्श ढूंढते रहे

जाने तूं है भी कि नही, तेरी खातिर

हम काबे -काशी में बिखरते टूटते रहे

मेरी पुस्तक "ज़र्रे -ज़र्रे में वो हे "से

ओ ह्रदय!

ओ हृदय !लड़ो मस्तिष्क से
रखो उसें निज अधीन
मस्तिष्क का तुम पर आधिपत्य
बना देगा ,सृष्टी सवेंदनहीन

मेरी पुस्तक "वक्त की शाख पे "

दीये की लौ में

रोज़ साँझ ,दीये की लौ में
नज़र आता है
एक आलौकिक चेहरा
मंत्र -मुग्ध सी मै
खोकर उसमें ,
भूल जाती हूँ -
शेष आरती
हे प्रभो मेरे !
क्या प्रकट होने लगे हो तुम
मेरी खातिर ,दीये की लौ में !
या अनुरक्त ,आसक्त मै
खोई हुई किसी ओर प्यार में
ढूँढने लगती हूँ ,
छवि उस प्रियतम की
इस दीये की लौ में
मेरी पुस्तक "वक्त की शाख पे " से

बिजली की तर्जन संग

बिजली की तर्जन संग
क्यों दौड़ रहे मेघ
होकर दिशाहीन
क्षत-विक्षत
आशंक-त्रस्त
इधर-उधर
क्या आकाश में भी
व्यापत हो गया भय
रक्त-पिपासु
आंतक वादियों का !
मेरी पुस्तक "वक्त की शाख पे "से


फ़रवरी 06, 2010

मिट्टी की ढेरी

ये दौलोत 'ये सोहरत ये हैसियत-ओ -सबाहत ये रिफ़कत


ये सभी बुल-बुले इक दिन मौज़े -फ़ना में गुम हो जायेंगें


बात बस इतनी सी है फ़क़त चंद सांसों के खेल के बाद


फ़िर से वही मिट्टी की ढेरी हम-तुम,तुम-हम हो जायेगें


मेरी पुस्तक "इक कोशिश रोशनी की ओर "से

हमको मना हो गए

मुश्ते -ख़ाक जरुर नसीब होगी अपने वतन की

ज़हनो-दिल में ये आरज़ू लिए हम फ़ना हो गए

गैर मुल्क में है अब घर इस बदनसीब का

तो बकानून ये हक़ भी हमको मना हो गए

मेरी पुस्तक "ज़र्रे -ज़र्रे में वो है "से

फ़रवरी 05, 2010

दुछत्ती सा मन

घर की दुछत्ती सा निरंतर अथाह अनंत दुखों का बोझ ढोता है मन

ज़िंदगी फ़िर भी करती है कोशिश बैठक की तरह मुस्कराने की

मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से

कैसे सुनूँ बसंत की चाप

ऐ मन बता कैसे सुनूँ बसंत की चाप
नज़र ओ मन पे हावी आंकत की छाप
चंग ,मृदंग पे गोले बारूद की थाप
वक्त को लगा जाने ये किसका श्राप
सुलग रही हवाएं , रोशनी रही कांप
मन हुआ कातर विनाश सृष्टि का भांप
मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से

तुझे नमस्कार हो जाए

सुख शांती मंगल से परिपूर्ण ये संसार हो जाये

हर एक मन साँस में मानवता का संचार हो जाये

मिटा दो ये युद्ध विध्वंस तो बड़ा उपकार हो जाये

इस धरती से ख़त्म सरहदों की दीवार हो जाये

मिट जाये ये जांत-पांत दुनिया एक परिवार हो जाये

सचमुच ज़न्नत कहीं है तो ज़मी पे साकार हो जाये

काश !यक ब यक ऐसा कोई चमत्कार हो जाये

तो यक़ीनन खुद ब खुद तुझे नमस्कार हो जाए

मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से

किससें करूँ

दौरे-खिज़ां में चमन के बात किससें करूँ
पथरों के शहर में मन की बात किससें करूँ
इक हाथ दूसरे के ख़िलाफ़ खंज़र उठाये हुए
ऐसे में चेनो -अमन की बात किससें करूँ
हैं अपने ही घरों में साज़िशों के शिकार हम
वहां हिफ़ाज़ते -वतन की बात किससें करूँ
है शौक दोनों ही तरफ़ गड़े मुर्दे उखाड़ना
वहां नफ़रतों के दफ़न की बात किससें करूँ

रोशन होता गया

वो अंधेरों में रोशन होता गया
जो दीवारों से चिलमन होता गया
बिखरे हुवे तिनके यूं जोड़े हमने
फिर से प्यार का नशेमन होता गया
पोष जितना भी जो न बरसा था कभी
आँख का पानी सावन होता गया
कोरी मिट्टी सा जग में आया था बशर
वो हसरतों का बर्तन होता गया
नज़र की गहराइयों से देखा जहाँ
सब कुछ साफ़ दर्पण होता गया
कबीर को पढ़ लिया इक परिंदे ने
सारा जहाँ उसका चमन होता गया

इंसानियत सिखाई जाये

इक बज़्म मोतबर लोगों की बुलवाई जाये
फ़ातेहा नफ़रतों की उनसे पढ़ाई जाये
या सारी पाठशालाएं बंद कर दीजिये
या वहां तहरीरे -इंसानियत सिखाई जाये
बेशक पर्दों का रिवाज़ अब बहुत पुराना हुआ
पर नज़र जब भी उठे,शर्म से उठाई जाये
हल किये जाएँ पहले मुफ़लिसी के ये मसले
इन देरो-हरम की बातें फिर उठाई जाएँ
राहतें दिल की खुद ही हासिल हों जायेंगी
चैन ओ सुकून के संग दोस्ती बढाई जाये



कुछ हाइकु

ढलेगी शब
झिलमिला रही है
शम्मे -उम्मीद

आँखे सावन
उजड़ा बेवा -मन
कैसा मौसम ?

कद्दे -आदम
आईने हर तरफ
फिर भी झूंठ

कटे पेड़ ने
खोल दी मेरी आंखे
हरिया कर

जीवन थैला
भरा तमाम उम्र
अंततः खाली

आंतकवाद
गंभीर परेशानी
मानवता पे

संग रहते
अजान ओ आरती
वक्ते -सुबह

यतीम- बेवा
मुरझाये गुल से
उजड़ा बाग़

आदी हो जाती
सितम सहने की
झुकी गर्दन

क्यों आते ज्यादा
सर्दी ;गर्मी वर्षा
गरीब-घर

फ़रवरी 04, 2010

कुछ हाइकु

सादा सौन्दर्य
अपवाद स्वरूप
नज़र आता

निर्माण -कार्य
रिश्तों से कमजोर
ढहते जाते

प्राण ले लेती
पुलिस हिरासत
बेगुनाह के

पूर्ण तुझी में
आंकाक्षा ईश्वर की
मैंने कर ली

लरजते से
तेरे मधुर बोल
ज्यौं लोकगीत

अबोले -क्षण
सच्ची प्रीत -प्यार के
शाश्वत क्षण

दिल में मेरे
रेगिस्तानी अंधड़
तेरी याद का

तेरे आदर्श
हैं पीढ़ियों के प्राण
ओ प्यारे बापू !

मत कुरेद !
भरे हुए ज़ख्मों को
पीड़ा दायक

ख्वहिश है

ख़्वाहिश है कि इंसानियत मेरा जूनून हो जाये
फ़िर चाहे इसके हक़ में मेरा खून हो जाये
मेरी आफ़ताब की ख़्वाहिश ग़ैरवाजिब है
जिसके चलते बाक़ी लोग सितारों से महरूम हो जाये
मेरी पुस्तक "ज़र्रे जर्रे में वो है " से

फ़रवरी 03, 2010

क्यों सुबह के द्वार पे छाया अँधेरा

क्यों सुबह के द्वार पे छाया अँधेरा
आज किसके भाग में आया अँधेरा
रौशनी लाने की शपथ ली जिन- जिन ने
उन्ही ने हर तरफ फैलाया अँधेरा
मैं जिधर चली आशा की किरने थामे
साथ चला आया हम साया अँधेरा
सारे शहर ढूंढे प्यार की तलाश में
हर गाली नफ़रतों का पाया अँधेरा
रौशनी भी उन्ही के घर मिली मुझको
जिनके ज़हन में उतर आया अँधेरा
जाने अब कौनसा वेश पहनेगा
इंसा के खून से नहाया अँधेरा
बेखौफ मिला शहर के बाकी लोगों से
ईमानदार से कतराया अँधेरा
सोते शहर में देखकर जगता बच्चा
क़दम बढ़ाने से कतराया अँधेरा
ऐ शमा इस वक्त अलसाना ठीक नहीं
जब चारो तरफ़ हो गहराया अँधेरा

ग़ज़ल के शेर

करके ख़ाके सुपुर्द मिट्टी मेरी छानता है कोई
मैंने मर के जाना मुझे कितना मानता है कोई
नेकी कर और कुएँ में डाल ये जुमला याद रख
मतलब निकल जाने पे कब पहचानता है कोई
मेरी पुस्तक "जर्रे जर्रे में वो है " से

मुक्तक

मुकद्दर ने महरूम रखा हमें मुस्कराने से
हम ख़फ़ा-ख़फ़ा से रहे अहले ज़माने से
गिरता यतीम हथेली पे,तसल्ली बन जाता
जाया हो गया अश्क ज़मीं पे गिराने से

शुक्रिया कैसे अदा करूँ

समंदर के सामने कतरे को खड़ा कर दिया

हौसला मेरे छोटा था ,उसें बड़ा कर दिया

तेरे रहमो-करम का शुक्रिया कैसे अदा करूं

मेने थोड़ा माँगा,तुने बढ़ा-चढ़ा कर दिया

मेरी पुस्तक "ज़र्रे -ज़र्रे में वो है "से

नही करती व्यक्त

नही करती व्यक्त

प्रतिक्रिया

अब किसी भी बात पर

शायद ये खबर है

मेरे पागल होने की

मेरी पुस्तक "वक्त की शाख पर "से

दफ़न कर देना

काँटों की सारी खलिश मेरे साथ दफ़न कर देना

ज़माने के तमाम ग़मो को मेरा कफ़न कर देना

ये आंधियां नफ़रतों की थम जाये मेरी नब्ज़ संग

या इलाही उस रोज़ से प्यार भरा चमन कर देना

मेरी पुस्तक "ज़र्रे -ज़र्रे में वो है "से

अंधी हो गई

मूल्य लालटेन का
नहीं जुटा पाई
जब वह
बेचती गई
खुद को
रोशनी की खातिर
अंधी हो गई
मेरी पुस्तक "वक्त की शाख पे "से

जनवरी 27, 2010

नही पूज पाउंगी

और नही पूज पाउंगी उन पथरों को
जिनके अस्तित्व की चाह ने किया हो
इंसानियत को लहू लुहान
जीवन श्मशान
मेले वीरान
इन्सान को इन्सान से अनजान
ज़र्रे ज़र्रे को परेशान
मेरी अटूट आस्था को हैरान !
मेरी पुस्तक "वक्त की शाख पे " से