फ़रवरी 28, 2010

राह तकते आँखों में छाले हुए

राह तकते आँखों में छाले हुए

मिट रहे हसरते दीद पाले हुए

जाने कहाँ ठहर गया वो मुसाफ़िर

जिसकी खातिर हम मौत टाले हुए

मेरी पुस्तक "ज़र्रे-ज़र्रे में वो है "से

रंगे -खूं उतरा है

ये किसने रख दिए तबाही के ख़ार मेरे शहर की थाली में
हम तो गुल परोसने वाले लोग थे ज़िन्दगी की प्याली में
रंगे -दर्द समझ के तड़फ उठे हम देख कर जिन निगाहों को
हमे क्या खबर थी रंगे -खूं उतरा है उन निगाहों की लाली में
मेरी पुस्तक ज़र्रे -ज़र्रे में वो है "से
रखने को दुनिया साफ़-स्फ्फ़ा अब कबाड़ी की ज़िन्दगी जी जाये
नफ़रतों की रद्दी के बदले मुहब्बत की कीमत अदा की जाये
मेरी पुस्तक "ज़र्रे -ज़र्रे में वो है "से

फ़रवरी 11, 2010

काश !

काश !ये दिल दिल्ली की कुर्सी होता ,
फिर ये कभी न टूटता न तनहा होता
इस को पा लेने की कईयों में होड़ होती,
संभालने में मेहनत क़मर तोड़ होती
ये भी कईयों को आजमाता,मौका देता,
सज़ा उसको देता जो इसको धोका देता
जो इसको लगता वफ़ादार,इसमें वापस आता ,
इसके साथ दग़ा करने पर बुरा हाल होता ,
वो पांच साल या इससे पहले ही रोता
इसके साथ खेलना इतना आसन न होता,
जो करता ऐसी नादानी पश्चाताप में रोता
वफ़ादारों को परखने को समय की परिधी होती,
बेवफ़ाओं को हटाने के लिए कोई विधि होती
हर किसी के सपनों का ये सरताज़ होता,
काश !ये दिल दिल्ली की कुर्सी होता
मेरी पुस्तक "दो बूँद समुद्र के नाम "से

तलाश है मुझको

इन तमाम घुप्प अंधेरों को पराभूत कर सके जो,
ऐसी ही एक किरण की तलाश है मुझको
आहिंसा का चाँद जला सके जो हर दिन हर रात,
ऐसे ही एक गगन की तलाश है मुझको
पानी की बूंदों की बजाय बरसा सके प्रेम- शांती
ऐसे ही एक सावन की तलाश है मुझको
जिसमे ईर्ष्या,द्वेष,कटुता,नफ़रत न हो लेश मात्र ,
ऐसे ही एक मन की तलाश है मुझको
असंख्य,अगनित गोडसों की क़तारों के बीच छुपे,
गांधी से एक जीवन की तलाश है मुझको
मेरी पुस्तक दो बूँद समुद्र के नाम "से

दुःख है मुझे

एक कार खाई में गिरी ,
चार लोग मर गए
उन्हें न बचा पाने पर-
कितने रोये तुम
तुम्हें कितना अफ़सोस हुआ
चलो तुम तो सवेंदनशील हो
इस बात की बड़ी खुशी है मुझे
पर करोड़ों इन्सान जाँत-पाँत की-
इन गहरी खाइयों में गिर गए,
अगिनत,असंख्य मर गए
इन्हें न बचा पाने पर
एक भी आंसू न गिराया तुमने
जरा भी अफ़सोस न हुआ तुम्हें
तुम भी कितने संवेदनहीन हो
इस बात का बहुत दुःख है मुझे !
मेरी पुस्तक "दो बूँद समुद्र के नाम "से

कहाँ से आ गई ?

मै तो मखमली धोरों की उपज हूँ
ज़िन्दगी पथरीले पहाड़ों से कैसे टकरा गई ?
शुष्क वसुधा है ज़न्म्स्थली मेरी
फिर नैनों में इतनी नदियाँ कहाँ से आ गई ?
मेरी पुस्तक "दो बूँद समुद्र के नाम "से
लाख बदली हो चाहे सदी आज तक
दबाती है नेकी को बदी आज तक
हुई दिल के सामने बेबस इस क़दर
समंदर को जाती है नदी आज तक
एक दरिया बन गया होता अब तलक
गर जोड़ते आँखों की नमी आज तक
हर साँस पे लाख़ों मर्तबा हम मरे
बस धड़कने हमारी न थमी आज तक
मिली मुझको ज़माने भर की दौलतें
कुछ हसरतें दिल में दबी आज तक
प्यार करने वाले हज़ारों हर शहर
क्यों है फ़िर भी आप की कमी आज तक
कई पतझड़ आये,हिलाकर चल दिए
शाख मन की सपनो से लदी आज तक
रास्तों ने भले कम कर दिए हों फ़ासले
पर दूर आदमी से आदमी आज तक
कहते हो कि हमसे मानते तुम नही
क्या दिल से मनाया है कभी आज तक
धो-धो कर ज़िस्म को संगेमरमर किया
परतें मैल की मन पर जमी आज तक
क्यों उड़ी हवा कि ज़मीं-आसमां मिल रहे
आसमां को छू भी न सकी ज़मीं आज तक
मेरी पुस्तक "ज़र्रे-ज़र्रे में वो है "से

ग़ज़ल

ग़ज़ल
हर क़दम एक डर सा लगता है 
आदमी क्यूं शरर सा लगता है 
डर अंधेरों से क्यूं रहे मुझको 
उसका चेहरा सहर सा लगता है 
इसलिए रखते हैं ख़बर उसकी 
वो हमें बेख़बर सा लगता है 
उनको साया नसीब हो मौला 
जिनको पल दोपहर सा लगता है 
दोस्तों का वो इक हसीं साया 
एक घनेरा सजर सा लगता है 
दिल मुअत्तर है कितना आशा का 
खुश्बूओं के नगर सा लगता है

ऐ खुदा

ऐ खुदा इतना भी कमाल न कर
ज़िंदगी में मौत सा हाल न कर
काँटों को इतनी तरज़ीह देकर
यूं फूलों का जीना मुहाल न कर
ये दुनिया इक मुसाफ़िर ख़ाना
इसमें बसने का ख़याल न कर
ग़मे दहर का झगड़ा लेकर
तूं अपने घर में बवाल न कर
दर्द का दरमाँ तड़फ ही है
करके मुहब्बत मलाल न कर
आग बहुत दुनिया में,पानी कम
ये आंसू बेवज़ह पैमाल न कर
याद कर वो माज़ी के मंज़र
तूं अपना बरबादे-हाल न कर
चांदनी की चाह में यूं न पगला
इन अंधेरों से विसाल न कर

फ़रवरी 10, 2010

उपयुक्त शब्द

अनुपयुक्त जगह
प्रयुक्त हुए
उपयुक्त शब्द
अन्दर ही अन्दर
छटपटाते हैं
तिलमिलाते हैं
आँसु बहाते हैं
जैसे किसी कुलीन वंश की बेटी
ब्याह दी गई हो
किसी निकृष्ट परिवार में

बाक़ी न बचा

दर्दो-ग़म कोई भी बाक़ी न बचा मेरी ज़िन्दगी में आना
गोया ये मेरी ज़िन्दगी नही,हो दर्दो-ग़म का यतीम-ख़ाना
मेरी पुस्तक "दो बूँद समुद्र के नाम "से

क्या नाम दें ?

इस काल खंड को क्या नाम दें
जो जिया हमने !
कि जिया है हमने -
युद्ध /आंतक/विध्वंश
हिंसा /अराजकता
भय /शोक /संताप
प्रवंचना /आडम्बर
विद्वेष /पर्तिशोध
विषाद/वेदना
नग्नता /कामुकता
अवसरवादिता /भ्रष्टाचार
गलाजत /असंतोष
निरानंद /निरंकुशता
हत्या /बलात
कहाँ जिए हमने वे क्षण
जिस पर उठा कर सर
क्षण दो क्षण कर सकें अभिमान
आश्वस्त हो सके प्राण
हाय जीवन !
तुम्ही में जीया है हमने
हर क्षण
मृत्यु का महाकाल
जो नाचा हर मन में
दे नौ -नौ ताल
मेरी पुस्तक "वक्त की शाख पे "से

मज़बूर कर देंगे

अंधेरों तुम्हे रास्ता छोड़ने को मज़बूर कर देंगे
मेरे मंदीरे-वतन में फ़िर से वो चरागाँ जल उठे हैं
गफ़लत में जो घड़ियों तलक सुस्ताते रहे बेखबर
वो लम्हे फ़िर से बेदार होने के लिए मचल उठे हैं
मेरी पुस्तक "ज़र्रे -ज़र्रे में वो है "से

ज़ज्बा कितना सच्चा रहा होगा !

इस खुले आँगन से तो वो कुंजे -कारागार अच्छा रहा होगा
जंगे-आज़ादी में सरीक जहाँ वतन का हर बच्चा रहा होगा
उन लम्हों की तफसीरें पढ़ के बहरा आँखे नम हो जाती हैं
वतन पर मिटने वालों का ज़ज्बा कितना सच्चा रहा होगा
मेरी पुस्तक "ज़र्रे -ज़र्रे में वो है "से
सुकूं का एक कलाम लिख
सबको दुआ सलाम लिख
नज़र मुहब्बत की करले
जुबां प्रीत का पयाम लिख
इक ख़त तहरीरे -अमन का
इस ज़माने के नाम लिख
संग अँधेरा न लाये
ऐसी कोई शाम लिख
मुश्किलातों भरे दौर का
वक्त अब यहीं तमाम लिख
या मुकर अपने वजूद से
या शऊर से निजाम लिख
मेरी पुस्तक "ज़र्रेज़र्रे में वो है "से

फ़रवरी 09, 2010

बिखरते टूटते रहे

सहरा में आब-ऐ नक्श ढूंढते रहे

दीवारो-दर तेरे ही अक्श ढूंढते रहे

जाने तूं है भी कि नही, तेरी खातिर

हम काबे -काशी में बिखरते टूटते रहे

मेरी पुस्तक "ज़र्रे -ज़र्रे में वो हे "से

ओ ह्रदय!

ओ हृदय !लड़ो मस्तिष्क से
रखो उसें निज अधीन
मस्तिष्क का तुम पर आधिपत्य
बना देगा ,सृष्टी सवेंदनहीन

मेरी पुस्तक "वक्त की शाख पे "

दीये की लौ में

रोज़ साँझ ,दीये की लौ में
नज़र आता है
एक आलौकिक चेहरा
मंत्र -मुग्ध सी मै
खोकर उसमें ,
भूल जाती हूँ -
शेष आरती
हे प्रभो मेरे !
क्या प्रकट होने लगे हो तुम
मेरी खातिर ,दीये की लौ में !
या अनुरक्त ,आसक्त मै
खोई हुई किसी ओर प्यार में
ढूँढने लगती हूँ ,
छवि उस प्रियतम की
इस दीये की लौ में
मेरी पुस्तक "वक्त की शाख पे " से

बिजली की तर्जन संग

बिजली की तर्जन संग
क्यों दौड़ रहे मेघ
होकर दिशाहीन
क्षत-विक्षत
आशंक-त्रस्त
इधर-उधर
क्या आकाश में भी
व्यापत हो गया भय
रक्त-पिपासु
आंतक वादियों का !
मेरी पुस्तक "वक्त की शाख पे "से


फ़रवरी 06, 2010

मिट्टी की ढेरी

ये दौलोत 'ये सोहरत ये हैसियत-ओ -सबाहत ये रिफ़कत


ये सभी बुल-बुले इक दिन मौज़े -फ़ना में गुम हो जायेंगें


बात बस इतनी सी है फ़क़त चंद सांसों के खेल के बाद


फ़िर से वही मिट्टी की ढेरी हम-तुम,तुम-हम हो जायेगें


मेरी पुस्तक "इक कोशिश रोशनी की ओर "से

हमको मना हो गए

मुश्ते -ख़ाक जरुर नसीब होगी अपने वतन की

ज़हनो-दिल में ये आरज़ू लिए हम फ़ना हो गए

गैर मुल्क में है अब घर इस बदनसीब का

तो बकानून ये हक़ भी हमको मना हो गए

मेरी पुस्तक "ज़र्रे -ज़र्रे में वो है "से

फ़रवरी 05, 2010

दुछत्ती सा मन

घर की दुछत्ती सा निरंतर अथाह अनंत दुखों का बोझ ढोता है मन

ज़िंदगी फ़िर भी करती है कोशिश बैठक की तरह मुस्कराने की

मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से

कैसे सुनूँ बसंत की चाप

ऐ मन बता कैसे सुनूँ बसंत की चाप
नज़र ओ मन पे हावी आंकत की छाप
चंग ,मृदंग पे गोले बारूद की थाप
वक्त को लगा जाने ये किसका श्राप
सुलग रही हवाएं , रोशनी रही कांप
मन हुआ कातर विनाश सृष्टि का भांप
मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से

तुझे नमस्कार हो जाए

सुख शांती मंगल से परिपूर्ण ये संसार हो जाये

हर एक मन साँस में मानवता का संचार हो जाये

मिटा दो ये युद्ध विध्वंस तो बड़ा उपकार हो जाये

इस धरती से ख़त्म सरहदों की दीवार हो जाये

मिट जाये ये जांत-पांत दुनिया एक परिवार हो जाये

सचमुच ज़न्नत कहीं है तो ज़मी पे साकार हो जाये

काश !यक ब यक ऐसा कोई चमत्कार हो जाये

तो यक़ीनन खुद ब खुद तुझे नमस्कार हो जाए

मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से

किससें करूँ

दौरे-खिज़ां में चमन के बात किससें करूँ
पथरों के शहर में मन की बात किससें करूँ
इक हाथ दूसरे के ख़िलाफ़ खंज़र उठाये हुए
ऐसे में चेनो -अमन की बात किससें करूँ
हैं अपने ही घरों में साज़िशों के शिकार हम
वहां हिफ़ाज़ते -वतन की बात किससें करूँ
है शौक दोनों ही तरफ़ गड़े मुर्दे उखाड़ना
वहां नफ़रतों के दफ़न की बात किससें करूँ

रोशन होता गया

वो अंधेरों में रोशन होता गया
जो दीवारों से चिलमन होता गया
बिखरे हुवे तिनके यूं जोड़े हमने
फिर से प्यार का नशेमन होता गया
पोष जितना भी जो न बरसा था कभी
आँख का पानी सावन होता गया
कोरी मिट्टी सा जग में आया था बशर
वो हसरतों का बर्तन होता गया
नज़र की गहराइयों से देखा जहाँ
सब कुछ साफ़ दर्पण होता गया
कबीर को पढ़ लिया इक परिंदे ने
सारा जहाँ उसका चमन होता गया

इंसानियत सिखाई जाये

इक बज़्म मोतबर लोगों की बुलवाई जाये
फ़ातेहा नफ़रतों की उनसे पढ़ाई जाये
या सारी पाठशालाएं बंद कर दीजिये
या वहां तहरीरे -इंसानियत सिखाई जाये
बेशक पर्दों का रिवाज़ अब बहुत पुराना हुआ
पर नज़र जब भी उठे,शर्म से उठाई जाये
हल किये जाएँ पहले मुफ़लिसी के ये मसले
इन देरो-हरम की बातें फिर उठाई जाएँ
राहतें दिल की खुद ही हासिल हों जायेंगी
चैन ओ सुकून के संग दोस्ती बढाई जाये



कुछ हाइकु

ढलेगी शब
झिलमिला रही है
शम्मे -उम्मीद

आँखे सावन
उजड़ा बेवा -मन
कैसा मौसम ?

कद्दे -आदम
आईने हर तरफ
फिर भी झूंठ

कटे पेड़ ने
खोल दी मेरी आंखे
हरिया कर

जीवन थैला
भरा तमाम उम्र
अंततः खाली

आंतकवाद
गंभीर परेशानी
मानवता पे

संग रहते
अजान ओ आरती
वक्ते -सुबह

यतीम- बेवा
मुरझाये गुल से
उजड़ा बाग़

आदी हो जाती
सितम सहने की
झुकी गर्दन

क्यों आते ज्यादा
सर्दी ;गर्मी वर्षा
गरीब-घर

फ़रवरी 04, 2010

कुछ हाइकु

सादा सौन्दर्य
अपवाद स्वरूप
नज़र आता

निर्माण -कार्य
रिश्तों से कमजोर
ढहते जाते

प्राण ले लेती
पुलिस हिरासत
बेगुनाह के

पूर्ण तुझी में
आंकाक्षा ईश्वर की
मैंने कर ली

लरजते से
तेरे मधुर बोल
ज्यौं लोकगीत

अबोले -क्षण
सच्ची प्रीत -प्यार के
शाश्वत क्षण

दिल में मेरे
रेगिस्तानी अंधड़
तेरी याद का

तेरे आदर्श
हैं पीढ़ियों के प्राण
ओ प्यारे बापू !

मत कुरेद !
भरे हुए ज़ख्मों को
पीड़ा दायक

ख्वहिश है

ख़्वाहिश है कि इंसानियत मेरा जूनून हो जाये
फ़िर चाहे इसके हक़ में मेरा खून हो जाये
मेरी आफ़ताब की ख़्वाहिश ग़ैरवाजिब है
जिसके चलते बाक़ी लोग सितारों से महरूम हो जाये
मेरी पुस्तक "ज़र्रे जर्रे में वो है " से

फ़रवरी 03, 2010

क्यों सुबह के द्वार पे छाया अँधेरा

क्यों सुबह के द्वार पे छाया अँधेरा
आज किसके भाग में आया अँधेरा
रौशनी लाने की शपथ ली जिन- जिन ने
उन्ही ने हर तरफ फैलाया अँधेरा
मैं जिधर चली आशा की किरने थामे
साथ चला आया हम साया अँधेरा
सारे शहर ढूंढे प्यार की तलाश में
हर गाली नफ़रतों का पाया अँधेरा
रौशनी भी उन्ही के घर मिली मुझको
जिनके ज़हन में उतर आया अँधेरा
जाने अब कौनसा वेश पहनेगा
इंसा के खून से नहाया अँधेरा
बेखौफ मिला शहर के बाकी लोगों से
ईमानदार से कतराया अँधेरा
सोते शहर में देखकर जगता बच्चा
क़दम बढ़ाने से कतराया अँधेरा
ऐ शमा इस वक्त अलसाना ठीक नहीं
जब चारो तरफ़ हो गहराया अँधेरा

ग़ज़ल के शेर

करके ख़ाके सुपुर्द मिट्टी मेरी छानता है कोई
मैंने मर के जाना मुझे कितना मानता है कोई
नेकी कर और कुएँ में डाल ये जुमला याद रख
मतलब निकल जाने पे कब पहचानता है कोई
मेरी पुस्तक "जर्रे जर्रे में वो है " से

मुक्तक

मुकद्दर ने महरूम रखा हमें मुस्कराने से
हम ख़फ़ा-ख़फ़ा से रहे अहले ज़माने से
गिरता यतीम हथेली पे,तसल्ली बन जाता
जाया हो गया अश्क ज़मीं पे गिराने से

शुक्रिया कैसे अदा करूँ

समंदर के सामने कतरे को खड़ा कर दिया

हौसला मेरे छोटा था ,उसें बड़ा कर दिया

तेरे रहमो-करम का शुक्रिया कैसे अदा करूं

मेने थोड़ा माँगा,तुने बढ़ा-चढ़ा कर दिया

मेरी पुस्तक "ज़र्रे -ज़र्रे में वो है "से

नही करती व्यक्त

नही करती व्यक्त

प्रतिक्रिया

अब किसी भी बात पर

शायद ये खबर है

मेरे पागल होने की

मेरी पुस्तक "वक्त की शाख पर "से

दफ़न कर देना

काँटों की सारी खलिश मेरे साथ दफ़न कर देना

ज़माने के तमाम ग़मो को मेरा कफ़न कर देना

ये आंधियां नफ़रतों की थम जाये मेरी नब्ज़ संग

या इलाही उस रोज़ से प्यार भरा चमन कर देना

मेरी पुस्तक "ज़र्रे -ज़र्रे में वो है "से

अंधी हो गई

मूल्य लालटेन का
नहीं जुटा पाई
जब वह
बेचती गई
खुद को
रोशनी की खातिर
अंधी हो गई
मेरी पुस्तक "वक्त की शाख पे "से