फ़रवरी 11, 2010

लाख बदली हो चाहे सदी आज तक
दबाती है नेकी को बदी आज तक
हुई दिल के सामने बेबस इस क़दर
समंदर को जाती है नदी आज तक
एक दरिया बन गया होता अब तलक
गर जोड़ते आँखों की नमी आज तक
हर साँस पे लाख़ों मर्तबा हम मरे
बस धड़कने हमारी न थमी आज तक
मिली मुझको ज़माने भर की दौलतें
कुछ हसरतें दिल में दबी आज तक
प्यार करने वाले हज़ारों हर शहर
क्यों है फ़िर भी आप की कमी आज तक
कई पतझड़ आये,हिलाकर चल दिए
शाख मन की सपनो से लदी आज तक
रास्तों ने भले कम कर दिए हों फ़ासले
पर दूर आदमी से आदमी आज तक
कहते हो कि हमसे मानते तुम नही
क्या दिल से मनाया है कभी आज तक
धो-धो कर ज़िस्म को संगेमरमर किया
परतें मैल की मन पर जमी आज तक
क्यों उड़ी हवा कि ज़मीं-आसमां मिल रहे
आसमां को छू भी न सकी ज़मीं आज तक
मेरी पुस्तक "ज़र्रे-ज़र्रे में वो है "से

कोई टिप्पणी नहीं: