फ़रवरी 11, 2010

ग़ज़ल

ग़ज़ल
हर क़दम एक डर सा लगता है 
आदमी क्यूं शरर सा लगता है 
डर अंधेरों से क्यूं रहे मुझको 
उसका चेहरा सहर सा लगता है 
इसलिए रखते हैं ख़बर उसकी 
वो हमें बेख़बर सा लगता है 
उनको साया नसीब हो मौला 
जिनको पल दोपहर सा लगता है 
दोस्तों का वो इक हसीं साया 
एक घनेरा सजर सा लगता है 
दिल मुअत्तर है कितना आशा का 
खुश्बूओं के नगर सा लगता है

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