लेखन आपके मन का खालीपन भरता है . मन को सुकूं मिलता है ,.मेरे भीतर जब कोई अभाव कसमसाता है तब शायद रचना जन्म लेती है, मुझे पता नहीं चलता आभाव क्या पर कोई रिक्तता होती है है कुछ उद्द्वेलित करता है इन भावों की आत्यंतिक उत्कटता और विचारों का सघन प्रवाह मेरे शब्दों को आगे बढ़ाता है मेरी कलम में उतर आता है . कभी शब्द मुझमे थिरकन पैदा कर देते हैं कभी जड़ बना देते हैं मुझे क्षण -क्षण सघनतर होते हुवे विचारों के बादलों को कोई बरसने से रोक नहीं पाती हूँ तो कलम उठानी ही पड़ती है .
मार्च 27, 2010
मार्च 21, 2010
हर इक वरक पर कलेजा निकाल लेते हैं
हम जानते हैं ये पहलू भी दोनों तेरे ही हैं
सुकून भर को ये सिक्का उछाल लेते हैं
मार्च 20, 2010
रिश्ते - नाते
मार्च 19, 2010
दरो-दिवार सजाते हैं
मार्च 17, 2010
मार्च 16, 2010
ये आंसू
ये आंसू फिर आज दीवाने हैं
फिर यादों में मीत पुराने हैं
जान चुके हम जिन को दिल से
क्यों रिश्ते वही अनजाने हैं
लाख छुपाऊँ जग से बातें
ढलकर अश्क कह जाने हैं
दर्द भरे इन रिश्तों के
आख़िरी हिचकी तक माने हैं
टूट गएँ हैं पर न बिखरेंगे
ज़ख्में जिगर तुझे दिखाने हैं
इन अश्कों को हम न पोंछेंगे
तेरे दिए जो नजराने हैं
आ जाओ तो जी भर रोलें
अश्कों के मोती तुम पे लुटाने हैं
खुद को तन्हा कैसे कह दें
साथ मेरे तेरे अफ़साने हैं
हर इक दोलत साए में है
जब तक तेरी याद के खजाने हैं
तुमको चाह कर कुछ ना चाहा
सरशारी मेरी रब भी जाने हैं
हैं कितने गहरे दिल के रिश्ते
ये अश्क उसी के पैमाने हैं
मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर'
संवेदनाओ के घने बादलों को
मार्च 15, 2010
दर्द मेरे ज़हन का [कैद पंछी ]
मार्च 14, 2010
मैं चिड्कली [ बेटी ]
अनुराग
ग़रीब का जीवन
मार्च 12, 2010
आ पहुंचा सृष्टि का काल
लहुलुहान रंग -ओ -गुलाल है
संभल के उड़ना ओ रे पंछी
हर दिशा प्रलय का जाल है
विष का सागर नीलम आँखे
मुस्काने प्रवंचना की चाल है
राम सा आनन रावण मन
छल ने धरी मृग -छाल है
परख पहन रिश्तों के चोले
घात में बैठा विष व्याल है
मौत के घुंघरू छनक उठे
विध्वंस देता करताल है
घर -दरवाज़े थाप ठोकता
आ पहुंचा सृष्टि का काल है
मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर " से
सुनामी [२६दिस्म्बर २००४]
वो उफनता हुआ समन्दर
वो सिसकती,तड़फती सांसे
वो काल का भयावह मंज़र
दर्द के दरिया में डूब गई
किश्तियाँ कितनी मसर्रतों की
ये कैसा तूफाँ आया जो बूझा गया
अनगिनत शमाएँ हसरतों की
हर नज़र ढूंढ रही अपनों के चेहरे
हर धड़कन को अपनों का इंतजार
जाने किधर बूँद -बूँद सी बिखर गई
इस समन्दर की बाँहों में जीवन धार
डूब गये थे कुछ ख़्वाब सुहाने
डूब गई थीं कुछ मधुर आशाएं
डूब गए थे खुशियों के अंजुमन
थीं हर सू बांह फैलाती निराशाएं
मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से
पदचिन्ह
अपने पदचिन्ह
कि शायद करे कोई मेरा अनुसरण
बल्कि इसलिए गहरे गड़ा रही हूं
ज़मीन में अपने पाँव
ताकि बता सकूँ दुनिया को
तमाम अवरोधों,विरोधों
आंधी ,तूफ़ानो के बावजूद
मन के पावों में उठती
दर्द भरी टीस के उपरान्त भी
रुकना मंजूर न था मुझको
मेरे पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से
मार्च 08, 2010
जय -जय भगवाधारी
बहुतेरे साधू गृहस्थ ,संसारी
डोंगी,कपटी छलिया,छपटी
पाखंडी, मायावी,व्यभिचारी
रुद्राक्ष,तिलक भगवा,धारकर
फुसलाते जन-मन बारी-बारी
दो खोटे मनके चार मन्त्रों के बल पर
माने खुद को ज्ञान के अधिकारी
वेद, पुराण टिका, भाष्यों पर
तनिक न बुद्धि गईं विचारी
एसी घर कारें,व्यपार की कतारें
दौलोत ,सोहरत पे जाते बलिहारी
फिल्म,राजनीति ,कल्बऔर कैफे
सुस्वादिष्ट व्यंजन के चस्कारी
अफीम,दारु ,भंग -चरस-गांजा
करते सेवन पान,गुटखा,सुपारी
माँ,बहन,बेटी किसी को न छोड़े
रूप ,विषय ,वासना के पूजारी
हाथ कमंडल,माथे पे जटाजूट
ठग,दुष्टि ,धूर्त ,बड़े विषधारी
करतूतें,कारनामे रोज की खबरें
अक्सर घेरे रहते इनको डंडाधारी
फ़िर भी आसक्ति अंध है हमारी
यह कैसी फ़ैली धर्म की महामारी
हर तरफ जय-जय भगवाधारी
इस देश का संबल बनो
मार्च 07, 2010
दहसत में जो घर छोड़ कर गया
ख़ूबसूरती की जो इक मिसाल था
वह आइना-ऐ -दिल से डर गया
यों बरसा ग़म का पगला बादल
सहरा-ऐ-दिल बन समंदर गया
वह आज़ाद परींदे सा आया
गया तो प्रीत सें बंध कर गया
अस्मत लुटा की खुदकशी जिसने
उसें देखने पूरा शहर गया
हाय !उसी शहर की अनदेखी से
एक परिवार भूख से मर गाया
आंतक का ये आवारा सांड
चैन-सुकून की फ़सलें चर गया
मुझको स्वीकार न था
मेरे मन को ये आमंत्रण कभी स्वीकार न था
बूँद ही सही इक दिन चमकूंगी बन कर मोती
लहरों में गुम हो जाना मुझको स्वीकार न था
मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर " से
मार्च 06, 2010
ये दुनिया किसने बनाई ?
पूछ रहे मुझ से ये दुनिया किसने बनाई॥?
क्यों रोशनी से भरा महल ये तेरा
क्यों मेरी झोंपड़ी में घनघोर अँधेरा
क्यों तेरी आँखें चाँद सी चमके
क्यों मेरी आँखों में है करुनाई
वो नंगे भूखे ................
पूछ रहे मुझसे ........
क्यों तुझको सुख सेज बिछाता
क्यों मुझको दुःख की शैया सुलाता
या नज़र में उसकी हम इंसान नहीं
या फ़िर एक नहीं है अपना रघुराई
वो नंगे भूखे ....
पूछ रहे मुझसे .......
क्यों हमीं पे गिरती बिजलियाँ मुफ़लिसी की
क्यों हमीं को डूबोते ये ग़म के धारे
क्यों थामे रहता दर्द दामन हमारा
क्यों टूटते हमारी ख्वाहिशों के तारे
वो नंगे भूखे ......
पूछ रहे मुझसे ....
मरी पुस्तक एक कोशिश रोशनी की ओर "से
चल साथी मेरे साथ चल
चल साथी मेरे साथ चल
चल आज किसी के दर्द-ग़म
खुद उनकी ज़बानी सुनते हैं
बहुत सुन चुके दर्द के गीत गज़ल
किसी आहत को कुछ तो राहत देंगे
तेरे अंतर की करुना,मेरा नयन जल
ये जीवन पहेली मुस्किल जिनको
आ हम-तुम ढूंढें उनकी ख़ातिर कोई हल
जो हैं अंधेरों में उनकी ख़ातिर चाँद मनायें
जो तपिश में, खींच लायें उनके लिए बादल
आ हम-तुम,तुम-हम करके सब मिल जाएं
फ़िर न होगी कभी अपनी राहें मुश्किल
मैं तम से अकेले नहीं लड़ सकती
चल साथी मेरे साथ चल
मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से
ऐसा क्या लिख दूं
मेरे मरने के बाद वो लफ्ज़ मेरी आवाज़ हो जाये
मेरी पुस्तक एक कोशिश रोशनी की ओर "से
आख़िर कब तक
सीता से लेकर
तसलीमा नसरीन तक
होना पड़ा भूमिगत
आख़िर क्यों ...?
आख़िर कब तक ॥?
मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर" से
रक्त कण
दया- करुना
लज्जा-समर्पण
श्रधा -विश्वास
शांति -संवेदना
तप -त्याग
स्नेह -सहृदय
क्षमा -सहानुभूति
धैर्य -संतोष
नहीं करवा रही हूँ
आपका परिचय
किसी शब्द कोष से
ये वो "रक्त कण "है -
जो बहतें हैं -
हर औरत की रगों में
मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से
आंसू लाचारी के
जाने- अनजाने खुद को ही सज़ा न दीजिये
सृष्टि हो जायेगी मानव विहीन बिन नारी के
फ़िर रोओगे बैठकर आंसू अपनी ही लाचारी के
मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से
भावों का पानी
उलट गई है संस्कारों की थाली
मन-मटके में नहीं भावों का पानी
आदर्शों का डिब्बा खाली-खाली
बासी हुई सुगंध सम्बन्धों की
रिश्ते हुए हैं ज़हर की प्याली
पावन नही रही अग्नि चूल्हे की
कुंठा के धुएं से घर-दीवारें काली
आँखें मुस्काती कुटिल मुस्काने
मुख का अभिवादन बन गाया गली
बिखरी आदर -सत्कारों की रंगोली
टूट गई मान मनुहारों की डाली
पेड़ों पर लोभ लालच की अमराई
उगी फ़सलो पर ग़द्दारी की बाली
विकसी दूषित विचारों की फुलवारी
फ़ैली पाप अधम की हरियाली
दया करुना के पक्षी न आ पते अन्दर
छल -कपट बन गया मन का माली
वासनाओं से भरा भौंरों का गुंजन
तितलियों मुख नहीं लाज़ की लाली
कच्चे पड़ गये प्रण के पत्थर
ढह गई इमारतें मिसालों वाली
मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से
मार्च 05, 2010
लड़की
कहकर मुझको ,
ज़न्मता मेरी ही कोख से
तुम्हारे घर का उजाला
कड़वा समझ गिरा देते जिसे-
हाथ में लेने से पहले ,
जो तुमको लगता अमृत -
मुझी में पनपता वो प्याला
मेरी पुस्तक "दो बूँद समुद्र के नाम "से
ज़िन्दगी मुस्कराती रहे
दुलरा कर उठाती रहे
चढ़ते सूरज की रोशनी
क़िस्मत आपकी चमकाती रहे
शाम की सुर्ख लालिमा
जीवन में नये रंग लाती रहे
दिल से यही दुआ है हरदम
आपकी ज़िन्दगी मुस्कराती रहे
हवाओं की रुन-झुन भरे-
जीवन में मधुर संगीत
चन्द्र की चांदनी हुलस-हुलस-
लिखे आपके लिए सुख के गीत
राहें पग-पग पर फूल बिछाती रहे
दिल से यही दुआ है हरदम
आपकी ज़िन्दगी मुस्कराती रहे
मन कोयल कुहुक-कुहुक गाये
खुशियाँ पल-पल साए में आये
यश का फ़लक हो बाजू में
समृधियाँ शीश झुकाती रहे
दिल से यही दुआ है हरदम
आपकी ज़िन्दगी मुस्कराती रहे
मेरी पुस्तक "दो बूँद समुद्र के नाम "से
माफ़ करना पड़ा
मेरी आँखे उस बेवफ़ा की याद में
दिल को न चाहते हुए भी
उसका हर गुनाह माफ़ करना पड़ा
दो बूँद समुद्र के नाम से
चेहरा तो उसी का होता है
चेहरा तो उसी का होता है
जब भी या खुदा बोलती हूँ लब से
दिल में नाम उसी का होता है
में कहां करती हूँ कुछ अपने मन से
जो वो चाहे वही होता है
रोती भी हूँ तो सिर्फ़ अश्क मेरे बहते हैं
दिल में दर्द तो उसी का होता है
मेरी पुस्तक "दो बूँद समुद्र के नाम "से
चंद क़दम भी साथ देता ऐसा इक भी इंसान न था
रोशनी के लिए दिल भी अपना जलाया कई-कई बार
ज़िन्दगी में फ़िर भी उजालों का नामो निशान न था
तमाम उम्र जिसको पूजा था,पूजा की हर इक विधि से
वक्ते -रुखसत पता चला कि वो मेरा भगवान न था
दिल का दरवाज़ा खटखटाता रहा जो दिल के जगने तक
दरवाज़ा खोला तो पाया वो इस दिल का मेहमान न था
मौत से पहले मुश्किल था यारों खुद को दफ़न कर देना
वरन ज़िन्दगी भर तो हम पे किसी का कोई अहसान न था
मेरी पुस्तक "दो बूँद समुद्र के नाम "से
उठ रहा था
सूरते दीद सा कुछ मेरे दिल से उठ रहा था
शायद बुझ रही थी उम्मीदों की शमाएँ मेरी
या कि ख्वाहिशों का ज़नाज़ा उठ रहा था
मेरी पुस्तक "दो बूँद समुद्र के नाम "से
मत खेलो
बड़ी सुन्दर ज़िन्दगी है ये इसें नरक में मत धकेलो
धरा को इश्वर का सुन्दर वरदान हो तुम
पल-पल याद रखो ,जानवर नहीं इंसान हो तुम
"दो बूँद समुद्र के नाम "से
कहीं धूप में
कहीं बर्फ में गले लोग
दर्दो-ग़म की बस्ती में
तन्हाई के काफ़िले लोग
बारूदों की तल्ख़ धूप में
खूं-पसीने से गिले लोग
बिन जुर्म जो काटे सज़ा
वो सलीब की कीलें लोग
कुछ पड़े हैं लाशों जैसे
कुछ हैं गिद्द-चीलें लोग
सागर थे जो सूख गए
बचे रेत के टीले लोग
खूं भी नहीं खौलता अब
नहीं होते लाल-पीले लोग
पाप अधम के बाजों पर
नाच रहे रंगीले लोग
दुनिया की फुलवारी पे
उग आये कंटीले लोग
बिन पैंदे के लोटे सब
नहीं रहे हठीले लोग
कंचन वर्ण सी काया में
कलुष भरे पतीले लोग
नफस नफ़स ज़हर भरा
दिखते नही नीले लोग
मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से
माँ तुम
तुम सतरंगी स्नेह -आँचल
तुम मंदिर प्रांगन सी पवित्र
तुम पावन -पुनीत गंगाजल
टेढ़ा -मेढ़ा विकट जीवन जगत
तुम सीधी-सादी सरल प्रांजल
छल ,छदम ,कपट चारों तरफ़
माँ तेरी गोदी निर्मल ,निश्छल
पावक ,अनल सामान जीवन
तुम चन्दन की छाया शीतल
तेरे आशीषों की ज्योत्सना से
पथ मेरा नित -नित उज्जवल
पाने तेरा वात्सल्य सोम -सुधा
ज़न्म-ज़न्म पी लूँ जीवन गरल
तेरी कोख पाने की अभिलाषा में
स्वयं -भू भी है आतुर प्रतिपल
मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से
मार्च 04, 2010
खुद ही से दर जायेगा आदमी
सरपट भागती हुई ज़िंदगी में
कंही ठहर जायेगा आदमी
कसैला-विषैला मन का वातावरण
जीते जी मर जाएगा आदमी
ख्वाहिशों के ताने -बाने में
खुद बिखर जायेगा आदमी
दौड़ता हुआ सभ्यता की अंधी दौड़
संस्कृति बिसर जायेगा आदमी
मशीनों के बीच बन गया है मशीन
जाने किधर जायेगा आदमी
देख लिया जो शीशा इक दिन अनजाने में
खुद ही से डर जायेगा आदमी
मेरी पुस्तक "एक कोशिश रौशनी की ओर " से
कैसे सुनूं बसंत की चाप
ऐ मन बता कैसे सुनूँ बसंत की चाप
नज़र ओ मन पे हावी आंतक की छाप
चंग, मृदंग पे गोले -बारूद की थाप
वक्त को लगा जाने ये किसका श्राप
सुलग रही हवाएं,रोशनी रही कांप
मन हुआ कातर विनाश सृष्टि का भांप
मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से
वक्त नई कहानी का है
मेरा नहीं मसला वतन की जिंदगानी का है
ये सुलगते मंज़र,ये संवेदनाओं की ख़ामोशी
वाकई मैं हैरान हूँ क्योंकि वक्त हैरानी का है
बैठे रहेंगे कब तक यूं मूँद कर अपनी आँखें
जगो!वक्त अब हर ज़र्रे पर निगरानी का है
ये ख़ामोशी,ये अनजानापन आखिर कब तक
हटा दो मुंह से हाथ ये वक्त मुखर वाणी का है
धुंधले हुए इतिहास के पृष्ठों पर रचे हुए हरूफ़
वक्त को इंतज़ार अब इक नई कहानी का है
मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से
ढूंढ लेता है
आंधियां लाख तोड़े चाहे नीड़
पांखी फिर भी बसेरा ढूंढ लेता है
कितनी ही लम्बी क्यों न हो रात
सूरज फ़िर भी सवेरा ढूंढ लेता है
मेरी पुस्तक" एक कोशिश रोशनी की ओर "से
अर्थ भर
ना ही बहुत लम्बी उम्र
न ही युग-युगांतर
मैं जीवन जीना चाहती हूँ
छोटा किन्तु अर्थ भर
मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से
अनाथ
क्योंकि उसके कांधे ढो रहें हैं अब ज़िन्दगी का बोझ
बन खगोल शास्त्री ढूँढना चाहता था जो नए नक्षत्र
आज मात्र दो वक्त की रोटी रह गई है उसकी खोज
अब नहीं खिंचती उसको चाँद-तारों की झिलमिलाहट
पग-पग पर जल रही है उसकी ज़िन्दगी बन कर सोज़
निश्चयही मेरा वतन आज विश्व में सबसे अग्रणी होता
गर मजबूरी ने न तोड़े होते इक 'कलाम'के सपने रोज़
मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से
सचमुच ये सब देख के मन बहुत रोता है...!!!
ऐसा काम करतें हैं
चल इसें किसी और के नाम करतें हैं
बहुत दूर तक बहे बदी की इस नदी में
अब नेकी तट पर थोडा विश्राम करते हैं
रग-रग में ईर्ष्या-द्वेष के बेलों की हुंकारें
संयम साधना से उनपे लगाम करतें हैं
हावी है युगों से इस आनन् कई दसानन
इन्हें मिटाने को,खुद ही को राम करतें हैं
मृत्यु-शैया सन्मुख जीवन उत्सव हो जाये
आ पर हित में ऐसा कोई काम करतें हैं
मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर से
इक ऐसा स्वर्णिम सवेरा होगा
फ़िर न कहीं कोई अँधेरा होगा
सूरज उगेगा ऐश्वर्य वैभव का
समृद्धि का घर-घर फेरा होगा
आनंद-उत्सव की होंगी बस्तियां
चमकता हुआ हर चेहरा होगा
विषाद-वेदना जहाँ वर्जित होंगे
प्रहरी सुख प्रमोद का घेरा होगा
गूंजेगी "जय हो" की अनुगूंज
भाल पे कीर्ति का सेहरा होगा
उन्नति-प्रगति की होगी हरियाली
ऐसा सुन्दर भारत -वर्ष मेरा होगा
फिर चहकेगी सोने की चिड़िया
उस दिन धन्य जीवन मेरा होगा
मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से
हर साँस खौफ़जदा,हर दिल में डर है
कौन करे किसी की मौत का मातम
यहाँ रूह भी ज़िस्म से बेखबर है
हर तरफ़ है बेइंसाफ़ी की हवाएं
हर तरफ़ दरिया ऐ जोरोज़बर है
खुद का बोझ खुदी को ढोना होगा
रिश्तों की भीड़ में तनहा बसर है
मौत ओ ज़िंदगी में फ़र्क इतना ही
इक कड़वा घूँट ,इक मीठा ज़हर है
मंजिल की तरफ़
ज़िक्र हर जगह क़दमो का आता है
इक मोड़ पर आंसू भी छूट जाते हैं
दर्द उम्र भर को तनहा रह जाता है
मार्च 03, 2010
जो देखा तुम्हे हम से रूठ कर जाते हुए
फ़ज़ा आज इतनी नम-नम सी क्यों है
कोई रोया होगा किसी को भूलाते हुए
बदमाज़ज़ हवा ने जाने क्या कह दिया
लौट गए बादल जलती धरा पे छाते हुए
छटपटा रही है तेरे दीद की ये आरजू
और कितनी देर लगेगी तुझे आते हुए
कैसे जाना कि हम हिन्दू ,मस्लिम या सिख हैं
कुछ तो न लिखा था हम पे ज़हां में आते हुए
उसकी बेवफ़ाई से भी न टूटी थी जितना
उतनी बिखर रही हूँ उसके ख़त लौटाते हुए
जो तू चल के
जो तू चल के इक बार आ जाये
अज़ल गिरफ़्त को करार आ जाये
अज़ब कशमकश में है मौत मेरी
कहीं फिर न तुझ पे प्यार आ जाये
मेरी पुस्तक "ज़र्रे-ज़र्रे में वो है "से
याद के कोयले
तेरी याद के कोयले
चारों और फैलती हुई उसकी तपिश
जलाने लगी है मेरे आस-पास को
अब तो में भी चाहती हूँ कि _
ये जल्द ही तब्दील हो जाये राख में
मुझे मालूम है कि बाद उसके
मैं भी मिल जाउंगी ख़ाक में
मेरी पुस्तक "वक्त की शाख पे " से
मार्च 02, 2010
तलबगार रहे
बस यही वज़ह थी कि हम उम्र भर बीमार रहे
जिसने लगाये गुलसन गुल ओ बू की ख़ातिर
उस गुलची के हिस्से में पतझड़ और ख़ार रहे
ख़ता बस ये हुई कि दिल का कहना मान लिया
उसी बिनाय पर हम भी मुजरिमों में शुमार रहे
मेरी पुस्तक "ज़र्रे -ज़र्रे में वो है "के अंश ..
आँखों में
ज़रूर कोई अधूरा ख्वाब है तेरी आँखों में
क्यों कतरा-ऐ शबनम छलकाती रहती हैं हर वक्त
हो न हो कोई चेहरा गुलाब है तेरी आँखों में
जाने क्यों चाँद को भी नहीं देखा करते हो आजकल
यकीनन कोई दूजा महताब है तेरी आँखों में
लाख तैरना आये चाहे किसीको वो डूब जाएगा
दर्दो -गम का इक ऐसा गिर्दाब है तेरी आँखों में
नहीं पूछेंगे कैसे काटी तुमने इंतज़ार में उम्र
हर इक लम्हे का ज़वाब है तेरी आँखों में
मेरी पुस्तक "ज़र्रे -ज़र्रे में वो है "से
किसी की याद में
खिज़ां भी बहार होती चली गई
उम्र के संग सयानी हुई पीड़
खुद चारागार होती चली गई
फूल की उम्र ज्यों आई करीब
कलियाँ करार खोती चली गयी
इन अंधेरों को पनाह दे कर
रात बदनाम होती चली गई
बोझ ग़रीब के मूलो-सूद का
कई पीढियां ढोती चली गई
क़ाबे-काशी को शक्ल देने में
इंसानियत खोती चली गई
दिल में बेदार हुई जब उम्मीद
नाउम्मीदी सोती चली गई
टीस की सूई दे गया कोई
आँखें लड़ियाँ पिरोती चली गई
पहाड़ों के पीहर से बिछड़ नदी
पिया समंदर की होती चली गई
मेरी पुस्तक ज़र्रे -ज़र्रे में वो है "से
ज़िन्दगी का अलाव
साँसे भी गीली लकड़ियों सी दुन्धाने लगी है
हो सके तो आ के बुझा दे इस इंतज़ार को
मेरी मौत की आँखें भी डब-डबाने लगी है
मेरी पुस्तक ज़र्रे -ज़र्रे मै वो है "से
सहरा बनाने की जिद पाले हुए है
जो तुम्हे सहरा बनाने की ज़िद पाले हुए हैं
देखना एक दिन वो ही तेरे हाथ कटवा देंगे
जिनकी लगी बुझाते हुए इनमे छाले हुए हैं
मेरी पुस्तक "ज़र्रे -ज़र्रे में वो है "से
फ़रवरी 28, 2010
राह तकते आँखों में छाले हुए
राह तकते आँखों में छाले हुए
मिट रहे हसरते दीद पाले हुए
जाने कहाँ ठहर गया वो मुसाफ़िर
जिसकी खातिर हम मौत टाले हुए
मेरी पुस्तक "ज़र्रे-ज़र्रे में वो है "से
रंगे -खूं उतरा है
हम तो गुल परोसने वाले लोग थे ज़िन्दगी की प्याली में
रंगे -दर्द समझ के तड़फ उठे हम देख कर जिन निगाहों को
हमे क्या खबर थी रंगे -खूं उतरा है उन निगाहों की लाली में
मेरी पुस्तक ज़र्रे -ज़र्रे में वो है "से
फ़रवरी 26, 2010
फ़रवरी 11, 2010
काश !
फिर ये कभी न टूटता न तनहा होता
इस को पा लेने की कईयों में होड़ होती,
संभालने में मेहनत क़मर तोड़ होती
ये भी कईयों को आजमाता,मौका देता,
सज़ा उसको देता जो इसको धोका देता
जो इसको लगता वफ़ादार,इसमें वापस आता ,
इसके साथ दग़ा करने पर बुरा हाल होता ,
वो पांच साल या इससे पहले ही रोता
इसके साथ खेलना इतना आसन न होता,
जो करता ऐसी नादानी पश्चाताप में रोता
वफ़ादारों को परखने को समय की परिधी होती,
बेवफ़ाओं को हटाने के लिए कोई विधि होती
हर किसी के सपनों का ये सरताज़ होता,
काश !ये दिल दिल्ली की कुर्सी होता
मेरी पुस्तक "दो बूँद समुद्र के नाम "से
तलाश है मुझको
ऐसी ही एक किरण की तलाश है मुझको
आहिंसा का चाँद जला सके जो हर दिन हर रात,
ऐसे ही एक गगन की तलाश है मुझको
पानी की बूंदों की बजाय बरसा सके प्रेम- शांती
ऐसे ही एक सावन की तलाश है मुझको
जिसमे ईर्ष्या,द्वेष,कटुता,नफ़रत न हो लेश मात्र ,
ऐसे ही एक मन की तलाश है मुझको
असंख्य,अगनित गोडसों की क़तारों के बीच छुपे,
गांधी से एक जीवन की तलाश है मुझको
मेरी पुस्तक दो बूँद समुद्र के नाम "से
दुःख है मुझे
चार लोग मर गए
उन्हें न बचा पाने पर-
कितने रोये तुम
तुम्हें कितना अफ़सोस हुआ
चलो तुम तो सवेंदनशील हो
इस बात की बड़ी खुशी है मुझे
पर करोड़ों इन्सान जाँत-पाँत की-
इन गहरी खाइयों में गिर गए,
अगिनत,असंख्य मर गए
इन्हें न बचा पाने पर
एक भी आंसू न गिराया तुमने
जरा भी अफ़सोस न हुआ तुम्हें
तुम भी कितने संवेदनहीन हो
इस बात का बहुत दुःख है मुझे !
मेरी पुस्तक "दो बूँद समुद्र के नाम "से
कहाँ से आ गई ?
ज़िन्दगी पथरीले पहाड़ों से कैसे टकरा गई ?
शुष्क वसुधा है ज़न्म्स्थली मेरी
फिर नैनों में इतनी नदियाँ कहाँ से आ गई ?
मेरी पुस्तक "दो बूँद समुद्र के नाम "से
दबाती है नेकी को बदी आज तक
हुई दिल के सामने बेबस इस क़दर
समंदर को जाती है नदी आज तक
एक दरिया बन गया होता अब तलक
गर जोड़ते आँखों की नमी आज तक
हर साँस पे लाख़ों मर्तबा हम मरे
बस धड़कने हमारी न थमी आज तक
मिली मुझको ज़माने भर की दौलतें
कुछ हसरतें दिल में दबी आज तक
प्यार करने वाले हज़ारों हर शहर
क्यों है फ़िर भी आप की कमी आज तक
कई पतझड़ आये,हिलाकर चल दिए
शाख मन की सपनो से लदी आज तक
रास्तों ने भले कम कर दिए हों फ़ासले
पर दूर आदमी से आदमी आज तक
कहते हो कि हमसे मानते तुम नही
क्या दिल से मनाया है कभी आज तक
धो-धो कर ज़िस्म को संगेमरमर किया
परतें मैल की मन पर जमी आज तक
क्यों उड़ी हवा कि ज़मीं-आसमां मिल रहे
आसमां को छू भी न सकी ज़मीं आज तक
मेरी पुस्तक "ज़र्रे-ज़र्रे में वो है "से
ग़ज़ल
हर क़दम एक डर सा लगता है
आदमी क्यूं शरर सा लगता है
डर अंधेरों से क्यूं रहे मुझको
उसका चेहरा सहर सा लगता है
इसलिए रखते हैं ख़बर उसकी
वो हमें बेख़बर सा लगता है
उनको साया नसीब हो मौला
जिनको पल दोपहर सा लगता है
दोस्तों का वो इक हसीं साया
एक घनेरा सजर सा लगता है
दिल मुअत्तर है कितना आशा का
खुश्बूओं के नगर सा लगता है
ऐ खुदा
ज़िंदगी में मौत सा हाल न कर
काँटों को इतनी तरज़ीह देकर
यूं फूलों का जीना मुहाल न कर
ये दुनिया इक मुसाफ़िर ख़ाना
इसमें बसने का ख़याल न कर
ग़मे दहर का झगड़ा लेकर
तूं अपने घर में बवाल न कर
दर्द का दरमाँ तड़फ ही है
करके मुहब्बत मलाल न कर
आग बहुत दुनिया में,पानी कम
ये आंसू बेवज़ह पैमाल न कर
याद कर वो माज़ी के मंज़र
तूं अपना बरबादे-हाल न कर
चांदनी की चाह में यूं न पगला
इन अंधेरों से विसाल न कर
फ़रवरी 10, 2010
उपयुक्त शब्द
प्रयुक्त हुए
उपयुक्त शब्द
अन्दर ही अन्दर
छटपटाते हैं
तिलमिलाते हैं
आँसु बहाते हैं
जैसे किसी कुलीन वंश की बेटी
ब्याह दी गई हो
किसी निकृष्ट परिवार में
बाक़ी न बचा
गोया ये मेरी ज़िन्दगी नही,हो दर्दो-ग़म का यतीम-ख़ाना
मेरी पुस्तक "दो बूँद समुद्र के नाम "से
क्या नाम दें ?
जो जिया हमने !
कि जिया है हमने -
युद्ध /आंतक/विध्वंश
हिंसा /अराजकता
भय /शोक /संताप
प्रवंचना /आडम्बर
विद्वेष /पर्तिशोध
विषाद/वेदना
नग्नता /कामुकता
अवसरवादिता /भ्रष्टाचार
गलाजत /असंतोष
निरानंद /निरंकुशता
हत्या /बलात
कहाँ जिए हमने वे क्षण
जिस पर उठा कर सर
क्षण दो क्षण कर सकें अभिमान
आश्वस्त हो सके प्राण
हाय जीवन !
तुम्ही में जीया है हमने
हर क्षण
मृत्यु का महाकाल
जो नाचा हर मन में
दे नौ -नौ ताल
मेरी पुस्तक "वक्त की शाख पे "से
मज़बूर कर देंगे
मेरे मंदीरे-वतन में फ़िर से वो चरागाँ जल उठे हैं
गफ़लत में जो घड़ियों तलक सुस्ताते रहे बेखबर
वो लम्हे फ़िर से बेदार होने के लिए मचल उठे हैं
मेरी पुस्तक "ज़र्रे -ज़र्रे में वो है "से
ज़ज्बा कितना सच्चा रहा होगा !
जंगे-आज़ादी में सरीक जहाँ वतन का हर बच्चा रहा होगा
उन लम्हों की तफसीरें पढ़ के बहरा आँखे नम हो जाती हैं
वतन पर मिटने वालों का ज़ज्बा कितना सच्चा रहा होगा
मेरी पुस्तक "ज़र्रे -ज़र्रे में वो है "से
फ़रवरी 09, 2010
बिखरते टूटते रहे
सहरा में आब-ऐ नक्श ढूंढते रहे
दीवारो-दर तेरे ही अक्श ढूंढते रहे
जाने तूं है भी कि नही, तेरी खातिर
हम काबे -काशी में बिखरते टूटते रहे
मेरी पुस्तक "ज़र्रे -ज़र्रे में वो हे "से
ओ ह्रदय!
रखो उसें निज अधीन
मस्तिष्क का तुम पर आधिपत्य
बना देगा ,सृष्टी सवेंदनहीन
मेरी पुस्तक "वक्त की शाख पे "
दीये की लौ में
नज़र आता है
एक आलौकिक चेहरा
मंत्र -मुग्ध सी मै
खोकर उसमें ,
भूल जाती हूँ -
शेष आरती
हे प्रभो मेरे !
क्या प्रकट होने लगे हो तुम
मेरी खातिर ,दीये की लौ में !
या अनुरक्त ,आसक्त मै
खोई हुई किसी ओर प्यार में
ढूँढने लगती हूँ ,
छवि उस प्रियतम की
इस दीये की लौ में
मेरी पुस्तक "वक्त की शाख पे " से
बिजली की तर्जन संग
क्यों दौड़ रहे मेघ
होकर दिशाहीन
क्षत-विक्षत
आशंक-त्रस्त
इधर-उधर
क्या आकाश में भी
व्यापत हो गया भय
रक्त-पिपासु
आंतक वादियों का !
मेरी पुस्तक "वक्त की शाख पे "से
फ़रवरी 06, 2010
मिट्टी की ढेरी
ये दौलोत 'ये सोहरत ये हैसियत-ओ -सबाहत ये रिफ़कत
ये सभी बुल-बुले इक दिन मौज़े -फ़ना में गुम हो जायेंगें
बात बस इतनी सी है फ़क़त चंद सांसों के खेल के बाद
फ़िर से वही मिट्टी की ढेरी हम-तुम,तुम-हम हो जायेगें
मेरी पुस्तक "इक कोशिश रोशनी की ओर "से
हमको मना हो गए
मुश्ते -ख़ाक जरुर नसीब होगी अपने वतन की
ज़हनो-दिल में ये आरज़ू लिए हम फ़ना हो गए
गैर मुल्क में है अब घर इस बदनसीब का
तो बकानून ये हक़ भी हमको मना हो गए
मेरी पुस्तक "ज़र्रे -ज़र्रे में वो है "से
फ़रवरी 05, 2010
दुछत्ती सा मन
घर की दुछत्ती सा निरंतर अथाह अनंत दुखों का बोझ ढोता है मन
ज़िंदगी फ़िर भी करती है कोशिश बैठक की तरह मुस्कराने की
मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से
कैसे सुनूँ बसंत की चाप
नज़र ओ मन पे हावी आंकत की छाप
चंग ,मृदंग पे गोले बारूद की थाप
वक्त को लगा जाने ये किसका श्राप
सुलग रही हवाएं , रोशनी रही कांप
मन हुआ कातर विनाश सृष्टि का भांप
मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से
तुझे नमस्कार हो जाए
सुख शांती मंगल से परिपूर्ण ये संसार हो जाये
हर एक मन साँस में मानवता का संचार हो जाये
मिटा दो ये युद्ध विध्वंस तो बड़ा उपकार हो जाये
इस धरती से ख़त्म सरहदों की दीवार हो जाये
मिट जाये ये जांत-पांत दुनिया एक परिवार हो जाये
सचमुच ज़न्नत कहीं है तो ज़मी पे साकार हो जाये
काश !यक ब यक ऐसा कोई चमत्कार हो जाये
तो यक़ीनन खुद ब खुद तुझे नमस्कार हो जाए
मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से
किससें करूँ
पथरों के शहर में मन की बात किससें करूँ
इक हाथ दूसरे के ख़िलाफ़ खंज़र उठाये हुए
ऐसे में चेनो -अमन की बात किससें करूँ
हैं अपने ही घरों में साज़िशों के शिकार हम
वहां हिफ़ाज़ते -वतन की बात किससें करूँ
है शौक दोनों ही तरफ़ गड़े मुर्दे उखाड़ना
वहां नफ़रतों के दफ़न की बात किससें करूँ
रोशन होता गया
जो दीवारों से चिलमन होता गया
बिखरे हुवे तिनके यूं जोड़े हमने
फिर से प्यार का नशेमन होता गया
पोष जितना भी जो न बरसा था कभी
आँख का पानी सावन होता गया
कोरी मिट्टी सा जग में आया था बशर
वो हसरतों का बर्तन होता गया
नज़र की गहराइयों से देखा जहाँ
सब कुछ साफ़ दर्पण होता गया
कबीर को पढ़ लिया इक परिंदे ने
सारा जहाँ उसका चमन होता गया
इंसानियत सिखाई जाये
फ़ातेहा नफ़रतों की उनसे पढ़ाई जाये
या सारी पाठशालाएं बंद कर दीजिये
या वहां तहरीरे -इंसानियत सिखाई जाये
बेशक पर्दों का रिवाज़ अब बहुत पुराना हुआ
पर नज़र जब भी उठे,शर्म से उठाई जाये
हल किये जाएँ पहले मुफ़लिसी के ये मसले
इन देरो-हरम की बातें फिर उठाई जाएँ
राहतें दिल की खुद ही हासिल हों जायेंगी
चैन ओ सुकून के संग दोस्ती बढाई जाये
कुछ हाइकु
झिलमिला रही है
शम्मे -उम्मीद
आँखे सावन
उजड़ा बेवा -मन
कैसा मौसम ?
कद्दे -आदम
आईने हर तरफ
फिर भी झूंठ
कटे पेड़ ने
खोल दी मेरी आंखे
हरिया कर
जीवन थैला
भरा तमाम उम्र
अंततः खाली
आंतकवाद
गंभीर परेशानी
मानवता पे
संग रहते
अजान ओ आरती
वक्ते -सुबह
यतीम- बेवा
मुरझाये गुल से
उजड़ा बाग़
आदी हो जाती
सितम सहने की
झुकी गर्दन
क्यों आते ज्यादा
सर्दी ;गर्मी वर्षा
गरीब-घर
फ़रवरी 04, 2010
कुछ हाइकु
अपवाद स्वरूप
नज़र आता
निर्माण -कार्य
रिश्तों से कमजोर
ढहते जाते
प्राण ले लेती
पुलिस हिरासत
बेगुनाह के
पूर्ण तुझी में
आंकाक्षा ईश्वर की
मैंने कर ली
लरजते से
तेरे मधुर बोल
ज्यौं लोकगीत
अबोले -क्षण
सच्ची प्रीत -प्यार के
शाश्वत क्षण
दिल में मेरे
रेगिस्तानी अंधड़
तेरी याद का
तेरे आदर्श
हैं पीढ़ियों के प्राण
ओ प्यारे बापू !
मत कुरेद !
भरे हुए ज़ख्मों को
पीड़ा दायक
ख्वहिश है
फ़िर चाहे इसके हक़ में मेरा खून हो जाये
मेरी आफ़ताब की ख़्वाहिश ग़ैरवाजिब है
जिसके चलते बाक़ी लोग सितारों से महरूम हो जाये
मेरी पुस्तक "ज़र्रे जर्रे में वो है " से
फ़रवरी 03, 2010
क्यों सुबह के द्वार पे छाया अँधेरा
आज किसके भाग में आया अँधेरा
रौशनी लाने की शपथ ली जिन- जिन ने
उन्ही ने हर तरफ फैलाया अँधेरा
मैं जिधर चली आशा की किरने थामे
साथ चला आया हम साया अँधेरा
सारे शहर ढूंढे प्यार की तलाश में
हर गाली नफ़रतों का पाया अँधेरा
रौशनी भी उन्ही के घर मिली मुझको
जिनके ज़हन में उतर आया अँधेरा
जाने अब कौनसा वेश पहनेगा
इंसा के खून से नहाया अँधेरा
बेखौफ मिला शहर के बाकी लोगों से
ईमानदार से कतराया अँधेरा
सोते शहर में देखकर जगता बच्चा
क़दम बढ़ाने से कतराया अँधेरा
ऐ शमा इस वक्त अलसाना ठीक नहीं
जब चारो तरफ़ हो गहराया अँधेरा
ग़ज़ल के शेर
मैंने मर के जाना मुझे कितना मानता है कोई
नेकी कर और कुएँ में डाल ये जुमला याद रख
मतलब निकल जाने पे कब पहचानता है कोई
मेरी पुस्तक "जर्रे जर्रे में वो है " से
मुक्तक
हम ख़फ़ा-ख़फ़ा से रहे अहले ज़माने से
गिरता यतीम हथेली पे,तसल्ली बन जाता
जाया हो गया अश्क ज़मीं पे गिराने से
शुक्रिया कैसे अदा करूँ
समंदर के सामने कतरे को खड़ा कर दिया
हौसला मेरे छोटा था ,उसें बड़ा कर दिया
तेरे रहमो-करम का शुक्रिया कैसे अदा करूं
मेने थोड़ा माँगा,तुने बढ़ा-चढ़ा कर दिया
मेरी पुस्तक "ज़र्रे -ज़र्रे में वो है "से
नही करती व्यक्त
नही करती व्यक्त
प्रतिक्रिया
अब किसी भी बात पर
शायद ये खबर है
मेरे पागल होने की
मेरी पुस्तक "वक्त की शाख पर "से
दफ़न कर देना
काँटों की सारी खलिश मेरे साथ दफ़न कर देना
ज़माने के तमाम ग़मो को मेरा कफ़न कर देना
ये आंधियां नफ़रतों की थम जाये मेरी नब्ज़ संग
या इलाही उस रोज़ से प्यार भरा चमन कर देना
मेरी पुस्तक "ज़र्रे -ज़र्रे में वो है "से
अंधी हो गई
नहीं जुटा पाई
जब वह
बेचती गई
खुद को
रोशनी की खातिर
अंधी हो गई
मेरी पुस्तक "वक्त की शाख पे "से
जनवरी 27, 2010
नही पूज पाउंगी
जिनके अस्तित्व की चाह ने किया हो
इंसानियत को लहू लुहान
जीवन श्मशान
मेले वीरान
इन्सान को इन्सान से अनजान
ज़र्रे ज़र्रे को परेशान
मेरी अटूट आस्था को हैरान !
मेरी पुस्तक "वक्त की शाख पे " से