इस खुले आँगन से तो वो कुंजे -कारागार अच्छा रहा होगा
जंगे-आज़ादी में सरीक जहाँ वतन का हर बच्चा रहा होगा
उन लम्हों की तफसीरें पढ़ के बहरा आँखे नम हो जाती हैं
वतन पर मिटने वालों का ज़ज्बा कितना सच्चा रहा होगा
मेरी पुस्तक "ज़र्रे -ज़र्रे में वो है "से
लेखन आपके मन का खालीपन भरता है . मन को सुकूं मिलता है ,.मेरे भीतर जब कोई अभाव कसमसाता है तब शायद रचना जन्म लेती है, मुझे पता नहीं चलता आभाव क्या पर कोई रिक्तता होती है है कुछ उद्द्वेलित करता है इन भावों की आत्यंतिक उत्कटता और विचारों का सघन प्रवाह मेरे शब्दों को आगे बढ़ाता है मेरी कलम में उतर आता है . कभी शब्द मुझमे थिरकन पैदा कर देते हैं कभी जड़ बना देते हैं मुझे क्षण -क्षण सघनतर होते हुवे विचारों के बादलों को कोई बरसने से रोक नहीं पाती हूँ तो कलम उठानी ही पड़ती है .
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