फ़रवरी 03, 2010

मुक्तक

मुकद्दर ने महरूम रखा हमें मुस्कराने से
हम ख़फ़ा-ख़फ़ा से रहे अहले ज़माने से
गिरता यतीम हथेली पे,तसल्ली बन जाता
जाया हो गया अश्क ज़मीं पे गिराने से

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