जब तलक जीये तेरी दीद के तलबगार रहे
बस यही वज़ह थी कि हम उम्र भर बीमार रहे
जिसने लगाये गुलसन गुल ओ बू की ख़ातिर
उस गुलची के हिस्से में पतझड़ और ख़ार रहे
ख़ता बस ये हुई कि दिल का कहना मान लिया
उसी बिनाय पर हम भी मुजरिमों में शुमार रहे
मेरी पुस्तक "ज़र्रे -ज़र्रे में वो है "के अंश ..
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