मार्च 15, 2010

दर्द मेरे ज़हन का [कैद पंछी ]


मैं साथी था काभी इस उड़ते पवन का


आँखों में सपना था निस्सीम गगन का


जी भर जीता था जीवन हर एक क्षण का


अब तो दाना-पानी भी नहीं अपने मन का


क्या करूँ पिंजरे में ठहरे हुए इस जीवन का


मैं मालिक नहीं रहा जहाँ अपने ही फ़न का


कोई नहीं समझता यहाँ दर्द मेरे क्रन्दन का


वो तन्हा नीड रोता होगा मेरे घर-आँगन का


दिन के उजाले में भी अँधेरा अकेलेपन का


कभी सूरज था बांहों में,आज प्यासा किरण का


मेरी राह तकता होगा वो साथी मेरे बचपन का


जंजीरों में बंध गया,हर सपना मेरी पलकन का


आपनो का दर्द भी नहीं समझ पाता जो मानव


कैसे समझ पायेगा भला दर्द मेरे दिलो-जहन का



मेरी पुस्तक "दो बूँद समुद्र के नाम " से

1 टिप्पणी:

खोरेन्द्र ने कहा…

आपनो का दर्द भी नहीं समझ पाता जो मानव




कैसे समझ पायेगा भला दर्द मेरे दिलो-जहन का


bahut khub