अनचाही तुम्हारे आँगन उतरती
मिल जाये तो स्नेह के नहीं तो
केवल संस्कारों के दाने चुनती
जरुरत भर उछलती
जरुरत भर मचलती
घर भर स्नेह पंखों की छाया करती
नित नव दायित्वों के पाठ समझती
जरुरत भर उड़ती
जरुरत भर फुदकती
दिखाओ तो देख लेती सूरज की किरणें
नहीं तो अंधेरों के ही साये में पलती
जरुरत भर आँख खोलती
जरुरत भर बोलती
जितने दिन रहने दो अपने आँगन
बैठी रहती,जिस दिन उड़ाओ
चुपचाप किसी अन्य आँगन जा ठहरती
अधिकारों को बिसराती
कर्तव्यों का पालन करती
मैं चिड्कली
मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर " से
3 टिप्पणियां:
bahut shandar rachanaa hai ....
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