ऐ मन बता कैसे सुनूँ बसंत की चाप
नज़र ओ मन पे हावी आंतक की छाप
चंग, मृदंग पे गोले -बारूद की थाप
वक्त को लगा जाने ये किसका श्राप
सुलग रही हवाएं,रोशनी रही कांप
मन हुआ कातर विनाश सृष्टि का भांप
मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से
लेखन आपके मन का खालीपन भरता है . मन को सुकूं मिलता है ,.मेरे भीतर जब कोई अभाव कसमसाता है तब शायद रचना जन्म लेती है, मुझे पता नहीं चलता आभाव क्या पर कोई रिक्तता होती है है कुछ उद्द्वेलित करता है इन भावों की आत्यंतिक उत्कटता और विचारों का सघन प्रवाह मेरे शब्दों को आगे बढ़ाता है मेरी कलम में उतर आता है . कभी शब्द मुझमे थिरकन पैदा कर देते हैं कभी जड़ बना देते हैं मुझे क्षण -क्षण सघनतर होते हुवे विचारों के बादलों को कोई बरसने से रोक नहीं पाती हूँ तो कलम उठानी ही पड़ती है .
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