मार्च 19, 2010

दरो-दिवार सजाते हैं

हम शको-शूबह की आग बुझाते हैं
चल विश्वास के दरिया बहाते हैं
कर लेते हैं इंसानियत को बिछोना

प्यार मुहब्बत का तकिया लगाते हैं
चैनो - सुकूं की ओढ़ कर नर्म चादर
आँखों को ऊंचाई के ख़्वाब दिखातें हैं
चल सजाकर भाईचारे की थाली में
मिलकर मसर्रतों की मिठाई खातें हैं
दिखा अपने -अपने हुनर के तमाम रंग
अपने मुल्क के दरो-दीवार सजाते हें
मेरी पुस्तक "'इक कोशिश रोशनी की ओर "'से

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