किसी याद में रोती चली गई
खिज़ां भी बहार होती चली गई
उम्र के संग सयानी हुई पीड़
खुद चारागार होती चली गई
फूल की उम्र ज्यों आई करीब
कलियाँ करार खोती चली गयी
इन अंधेरों को पनाह दे कर
रात बदनाम होती चली गई
बोझ ग़रीब के मूलो-सूद का
कई पीढियां ढोती चली गई
क़ाबे-काशी को शक्ल देने में
इंसानियत खोती चली गई
दिल में बेदार हुई जब उम्मीद
नाउम्मीदी सोती चली गई
टीस की सूई दे गया कोई
आँखें लड़ियाँ पिरोती चली गई
पहाड़ों के पीहर से बिछड़ नदी
पिया समंदर की होती चली गई
मेरी पुस्तक ज़र्रे -ज़र्रे में वो है "से
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