मार्च 03, 2010

पलट गई रोशनी मेरे दर तक आते हुए
जो देखा तुम्हे हम से रूठ कर जाते हुए

फ़ज़ा आज इतनी नम-नम सी क्यों है
कोई रोया होगा किसी को भूलाते हुए

बदमाज़ज़ हवा ने जाने क्या कह दिया
लौट गए बादल जलती धरा पे छाते हुए

छटपटा रही है तेरे दीद की ये आरजू
और कितनी देर लगेगी तुझे आते हुए

कैसे जाना कि हम हिन्दू ,मस्लिम या सिख हैं
कुछ तो न लिखा था हम पे ज़हां में आते हुए

उसकी बेवफ़ाई से भी न टूटी थी जितना
उतनी बिखर रही हूँ उसके ख़त लौटाते हुए




1 टिप्पणी:

Aman Kumar Cholkar | Kumar 'Aazad' | ने कहा…

bahut hi badiya n Heart toucing Gazal ...

n this line is so nice
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उसकी बेवफ़ाई से भी न टूटी थी जितना
उतनी बिखर रही हूँ उसके ख़त लौटाते हुए ...............