मार्च 04, 2010

अनाथ

उसके कांधों पर नहीं रहा अब भारी बस्ते का बोझ
क्योंकि उसके कांधे ढो रहें हैं अब ज़िन्दगी का बोझ

बन खगोल शास्त्री ढूँढना चाहता था जो नए नक्षत्र
आज मात्र दो वक्त की रोटी रह गई है उसकी खोज

अब नहीं खिंचती उसको चाँद-तारों की झिलमिलाहट
पग-पग पर जल रही है उसकी ज़िन्दगी बन कर सोज़

निश्चयही मेरा वतन आज विश्व में सबसे अग्रणी होता
गर मजबूरी ने न तोड़े होते इक 'कलाम'के सपने रोज़

मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से
सचमुच ये सब देख के मन बहुत रोता है...!!!

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