मार्च 03, 2010

वस्ल की आरज़ू हिज्र की शब हुई
कम नसीबों की चाह पूरी कब हुई

शबे -सियाह से मुहब्बत कर बैठे
रोशनी हमसे बेवफ़ा जब हुई

अश्कों ने कह दिया हम उफ़ताद हैं
वरन अपनी ज़बां से उफ़ कब हुई

ख़ुदा-परस्ती से जिनके माने थे
वो ही पाकीज़ा मुहब्बतें रब हुई

सावन के अश्क भी थम से गए
मेरी निगाहों से बारिश जब हुई


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