मार्च 03, 2010

हर शै ज़ुल्मतों से घिर गई
निज़ामे -कुदरत किधर गई
रोशनी अमीरों को लुटाकर
बर्क मुफलिसों पर गिर गई
महलों की ठुकराई धूप
किसी चाली पर बिफर गई
गमख्वार बन आई जो सबा
मिरे वीराने से सिहर गई
पत्थर हो चुकी वो हसरतें
आज फ़िर से क्यों बिखर गई

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