मार्च 16, 2010

संवेदनाओ के घने बादलों को

संवेदनाओं के घने बादलों को
नफरतों की हवा उड़ा ले गई
लहलहाती फ़सलें भाईचारे की
बाढ़ स्वार्थों की उन्हें बहा ले गई
बदरंग हो गई तस्वीर मेरे शहर की
धूप छल -कपट की रंग सभी उड़ा ले गई
जिस आग को मैं बुझाने चली थी
वही आग मुझको भी जला ले गई
रिश्तों में यूँ चले क़त्ल के सिलसिले
ये सदी जाने कहाँ शर्मो-हया ले गई
जाने कैसी डकैती पड़ी मेरे शहर में
हर शरीर से उसकी आत्मा चुरा ले गई
इंसाफ में उठती थी जो चंद आवाजें
कुछ मजबूरियां उन्हें भी दबा ले गई
मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से

2 टिप्‍पणियां:

खोरेन्द्र ने कहा…

जाने कैसी डकैती पड़ी मेरे शहर में
हर शरीर से उसकी आत्मा चुरा ले गई

bahut bahut sundar

meenakshi ने कहा…

बदरंग हो गई तस्वीर मेरे शहर की
धूप छल -कपट की रंग सभी उड़ा ले गई
...so true and beautifully said