संवेदनाओं के घने बादलों को
नफरतों की हवा उड़ा ले गई
लहलहाती फ़सलें भाईचारे की
बाढ़ स्वार्थों की उन्हें बहा ले गई
बदरंग हो गई तस्वीर मेरे शहर की
धूप छल -कपट की रंग सभी उड़ा ले गई
जिस आग को मैं बुझाने चली थी
वही आग मुझको भी जला ले गई
रिश्तों में यूँ चले क़त्ल के सिलसिले
ये सदी जाने कहाँ शर्मो-हया ले गई
जाने कैसी डकैती पड़ी मेरे शहर में
हर शरीर से उसकी आत्मा चुरा ले गई
इंसाफ में उठती थी जो चंद आवाजें
कुछ मजबूरियां उन्हें भी दबा ले गई
मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से
2 टिप्पणियां:
जाने कैसी डकैती पड़ी मेरे शहर में
हर शरीर से उसकी आत्मा चुरा ले गई
bahut bahut sundar
बदरंग हो गई तस्वीर मेरे शहर की
धूप छल -कपट की रंग सभी उड़ा ले गई
...so true and beautifully said
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